मेरी झोली

June 1941

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(ले. आनन्द कुमार चतुर्वेदी “कुमार” छिबरामऊ)

मैं उसके द्वार पर गया, उसने मुस्कराते हुये मेरी झोली भर दी। मैं आनन्द विभोर हो उठा। उसकी विशेष कृपा देख कर मैं घर की ओर चल दिया। मैंने घूम कर देखा, वह हँस रहा था।

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गुलाबी बादलों को लाँघ कर घर आया, लोग मुझे देख कर आश्चर्य कर रहे थे। अब मुझे किसी के आगे हाथ पसारने की आवश्यकता न थी। मेरा भवन बादलों को चूमने लगा। द्वार पर द्वारपाल खड़े थे।

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कौन? आज प्रातःकाल ही मेरा द्वार कौन खटखटा रहा है? मैंने खिड़की से झाँक कर देखा। इतने सवेरे! मैं बाहर आया और उससे पूछा “क्या है?” वह खाली झोली लिये चल दिया उसने घूम कर मेरी ओर देखा और हँस पड़ा।

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मैं सोचने लगा, एक दिन मैं भी तो खाली झोली लेकर आया था। मैं भी तो ऐसा ही था न जाने क्या देख कर उन्होंने मेरी झोली भर दी, पर दूसरे ही क्षण मैंने सोचा यह तो विधि का विधान है परन्तु मैंने एक दिन देखा मेरी झोली खाली पड़ी है। मैं फिर झोली लेकर उसके पास चल दिया। वह आज भी हँस रहे थे। मैं खाली झोली लेकर लौटा। मार्ग में फिर वही मिला। मैंने अपने पास कुछ न देख कर उसे अपनी खाली झोली दे दी। वह प्रसन्न होता हुआ चला गया।

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परन्तु यह क्या-मेरी झोली भर कर मेरे द्वार पर कौन रख गया?


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