(ले. श्री शंकरलाल तिवारी, सागर)
तुम क्या हो? इसे तुम खुद ही नहीं जानते। तुम क्या हो अगर तुम इसे समझ जाओ; तो जिस संसार में तुम रहते हो; वह स्वर्ग बन जाय! सफलता और सिद्धियाँ-तुम्हारे चरणों में लोटने लगे, तुम एक दिव्य पुरुष बन जाओ, दिव्य प्रतिभा तुम्हारे अंग-अंग से फूट निकले। आध्यात्मिक सौंदर्य की आभाओं से तुम्हारा शरीर दमक उठे। तुम विश्व की महानता में एक अद्भुत प्राणी बन जाओ, प्रकृति तुम्हें नवीन ‘चिरजीवन’ का वरदान देगी, तुम उसके दुलारे बन जाओगे, लोग तुम्हें वनमाली कहेंगे, माताएं तुम्हें श्याम सुन्दर कहेंगी, सचमुच तुम मनमोहन हो जावोगे।
शरीर छोटा है, हाड, माँस, रक्त से बना है, इसकी कीमत ही क्या है! कल मिट्टी हो जायगा। दुनिया सराय है, आये-चले गये। ये कल्पनाएं उन दीवानों की हैं, जिन्होंने अपनी एक लगन के लिये दुनिया को ठोकर मार दी, लेकिन उन्होंने धूल में हीरा ढूंढ़ा और समुद्र में मोती खोजा। वे मिस्ले परवाने के शमाँ पर जल गये, कबीर, रहीम, तुलसी और मीरा आदि। पर जिन्होंने संसार को स्वर्ग समझा, शरीर को सोने की देह समझी, नर से नारायण होने की शक्ति अपने में देखी, उन्होंने इस जीवन को असार नहीं, बेशकीमती समझा, उन्होंने कीचड़ से रतन निकाले।
इस पिंजरे के अन्दर वे शक्तियाँ सोती हैं, जिनसे तुम एक अमर-प्राणी बन कर परम-पद पा सकते हो। इसी शरीर में करूं की तरह शक्तियों का खजाना छुपा है, बस पाने की देर है। मन को हाथ में लो, एकाग्रता की राह पकड़ो- उमंग और आनन्द के सुन्दर हार पहन कर आध्यात्मिक-पथ के राही बन जावो; फिर तुम्हें मालूम होगा कि तुम क्या हो।