धर्म का तिरस्कार मत करो

June 1941

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

नवीन सभ्यता की पुकार है कि “धर्म अफीम की गोली है। इसका परिणाम यह होता है कि लोग कल्पना जगत में विचरण करने लगते हैं और स्वर्ग, मुक्ति या ऐसे ही किसी अन्य ख्याली पुलाव के मजे चखते रहते हैं। कठोर कर्तव्य से बचने के लिए लोग वैराग्य का आसरा पकड़ते हैं और अकर्मण्यता के फलस्वरूप जो कष्ट मिलने चाहिएं, उनको आसानी से सहने के लिए धर्म की गोली का नशा कर लेते हैं। जिन्हें अवसर मिलता है वे धर्म के नाम पर बुरे-बुरे कर्म करने में नहीं चूकते। जिन्हें अवसर नहीं मिलता, वे मन को समझाने के लिए धर्म का आवरण ओढ़ते हैं। इस प्रकार धर्म वास्तव में आलसी और बदमाशों का ही पेशा रह जाता है।”

इस कडुए सत्य को सुनने में हमारे कान दुखते हैं। धर्म की निन्दा करना नास्तिकता है। पर जब नास्तिकता में सच्चाई प्रतीत हो तो उसकी ओर से आँखें बन्द नहीं की जा सकतीं। आज हमें धर्म के दो ही स्वरूप देखने में मिलते हैं, आलस्य या बदमाशी। हजारों लाखों भिखमंगे पीले कपड़ों को लज्जित करते हुए कुत्तों की तरह रोटी के टुकड़े माँगते फिरते हैं। जिस प्रकार अपाहिज या अशक्त प्राणी अपनी प्राण रक्षा के लिए समर्थों से दया की याचना करते हैं वैसे ही यह लोग अपने पेट को दिखाते हुए दाँत रिरिया कर भक्ष-अभक्ष की याचना करते हुए दिन भर दौड़ते रहते हैं। दूसरे वे लोग हैं जिनके हाथ में कुछ सत्ता आ गई है। किसी समाज में उन्हें आदर प्राप्त हो गया है, धर्म गुरु, पण्डे, पुरोहित, पुजारी, महन्त या सन्त का स्थान प्राप्त हो गया है। उनके कार्य उन भिखमंगों से अधिक भयंकर होते हैं। चेले चेलियों का धन हरण करने के साथ उनकी बुद्धि का भी यह हनन करते हैं। अपनी ही तरह आलस्य, प्रमोद या ख्याली दुनिया में उलझा कर उन्हें निकम्मा बना देते हैं। साथ ही धर्म की पवित्र वेदियों की आड़ में मुद्रा मैथुन की नग्न उपासना होती रहती है।

लोग धर्म की प्रशंसा तो करते हैं पर उससे बिच्छू की तरह बचते हैं। साधारण श्रेणी का गृहस्थ यह कदापि पसन्द नहीं करेगा कि उसके लड़के-लड़की किसी साधु या पुरोहित के संसर्ग में आवें। क्योंकि वह जानता है कि इसका निश्चित परिणाम होगा बरबादी! धर्म के महाप्रसाद के रूप में किसी को दो ही वस्तुएं मिल सकती हैं, अकर्मण्यता या दंभ। यह दोनों गुण एक समाज जीवी व्यक्ति पसन्द नहीं कर सकता, क्योंकि इनके सहारे वह किसी प्रकार सन्तोषजनक उन्नति नहीं कर सकता और न औसत दर्जे का जीवन ही बिता सकता है।

तब क्या धर्म सचमुच ही ‘अफीम की गोली है?’ विचारपूर्वक अन्वेषण से पता चलता है कि वह वस्तु धर्म नहीं हो सकती, जिसकी बेल पर ऐसे विषैले फल आते हों। धर्म का उद्देश्य मनुष्य को सर्वतोमुखी उन्नति के मार्ग पर अग्रसर करके अन्ततः चर मलक्ष-शाश्वत सुख, परमानन्द की प्राप्ति कर देना है। धार्मिक व्यक्ति का शरीर और मन स्वस्थ रहना चाहिए, उसके मुख और वाणी में से अमृत का झरना बहना चाहिए, जिसको पान करने से तप्त प्राणियों की शीतलता का भान हो। धार्मिक व्यक्ति ऐसा प्रकाश-स्तम्भ होना चाहिए, जिसकी पुण्य रश्मियों से प्रकाश का आविर्भाव हो और उस प्रकाश की प्रेरणा में प्राणिमात्र को सुख का मार्ग प्राप्त हो।

इन लक्षणों से तुलना करने पर आज का धर्म कसौटी पर पूरा नहीं उतरता। इससे प्रतीत होता है कि यह वस्तु धर्म नहीं है। करोड़ों कंठों से सूर्य को “कौआ” सिद्ध किया जाय तो भी, सूर्य की वास्तविकता में कुछ अन्तर न आवेगा, किन्तु धर्म की स्थिति आज ऐसी नहीं है। नवीन सभ्यता के आक्षेप चाहे अत्युक्तिपूर्ण हों, दुर्बुद्धि के कारण कहे गये हों तो भी उन्हें असत्य नहीं कहा जा सकता। क्योंकि इन आक्षेपों की जीती जागती और चलती फिरती प्रतिमाएं हम लाखों की तादाद में आँखों के सामने घूमती फिरती देखते हैं। इनमें धर्म या आध्यात्मिकता का एक भी गुण दिखाई-नहीं पड़ता, इन धर्मध्वजियों की अपेक्षा एक सैनिक आत्मा की अमरता के बारे में अधिक जानता है। वह गीता को नहीं रटता, पर गरजती हुई तोपों के बीच निर्भय होकर घूमता है। वह वैराग्य की आड़ में व्यभिचार के अड्डे कायम नहीं करता, वरन् अपने प्रिय-परिवार, प्राणप्रिया स्त्री और प्यारे बालकों का मोह छोड़ कर समराँगण में मृत्यु के साथ अठखेलियाँ करने के लिये हँसता हुआ जाता है, देश की पुकार पर एक गृहस्थ कर्मवीर अपना सर्वस्व निछावर कर देता है, किन्तु एक धर्म जीवी अपने पर तनिक भी आँच न आने देने के लिए दर्शन शास्त्र के पन्नों की आड़ में छिपता है। संसार के असंख्य गृही नवयुवक देश के उद्धार के लिए अपनी जान पर खेले हैं, परन्तु भारत के कितने गजेड़ी, भिखमंगे जो धर्म के नाम पर पलते हैं-धर्म के लिये कष्ट सहने को आगे आये?

इन कसौटियों पर कसने से पता चलता है कि हम धर्म के नाम पर ‘अज्ञान’ की, पूजा करने लगे हैं और अज्ञान को धर्म समझने लगे हैं। शिकारियों से बचने के लिए जिस प्रकार शुतुरमुर्ग बालू में अपना मुँह गाढ़ देता है कुछ क्षण के लिए अपने को सुखी पाता है, उसी प्रकार कर्तव्य की अवहेलना करने वाले बेशक धर्म को अफीम की गोली के रूप में सेवन करते हैं, परन्तु हे आक्षेप करने वालों! यह वस्तु धर्म नहीं है, इसका नाम है अज्ञान । गौ के स्थान पर गधा आ बैठे और उसकी तुम पूर्ण सुश्रूषा करके भी जब दूध न पा सको तो गौ को गालियाँ मत दो। आँख खोल कर देखो कि उसके स्थान पर कोई और तो नहीं आ बैठा है। धर्म के सिंह की खाल ओढ़ कर आज अज्ञान का श्रृगाल घूम रहा है। आँख खोल कर सत्य असत्य की पहचान करो, सिंह को अकर्मण्य मत बताओ।

धर्म आत्मा का दिव्य गुण है। वह जिस पुण्य पुरुष के अन्तःकरण में प्रवेश करता है, उसे प्रकाश का पुँज बना देता है। वह भिखमंगा नहीं, वरन् दानी होता है। विश्व उसके ऋण से ही दबा होता है, भला उसका बदला चुकाने की सामर्थ्य किसमें होगी? उसके निकट जाने पर कोई बर्बाद नहीं होता वरन् अपने कार्य के योग्य उचित शक्ति प्राप्त करता है। प्राचीन समय में राजकुमारों की शिक्षा ऋषियों के आश्रमों में होती थी। इससे वे लड़के न तो अकर्मण्य बन जाते थे और न गाँजा पीना सीख आते थे। सच्चा धार्मिक, जान बचाने के लिए धर्म पुस्तकों की आड़ नहीं ढूंढ़ता वरन् वह दूसरों के लिए दधीच की तरह अपनी हड्याँ दे देता है और नारद की तरह दिन रात धर्म प्रचार की रट लगाता हुआ घूमता है। व्यास की तरह अपनी आयु सद्ग्रन्थों की रचना में लगा देता है। द्रोणाचार्य की तरह शस्त्र विद्या का प्रचार करता है। पाणिनी की तरह व्याकरण बनाता है। परशुराम की तरह दुष्टों को दण्ड देता है और बुद्ध की तरह प्रेम और धर्म का उपदेश देता है। वह समय और देश की आवश्यकताओं की ओर देखता है और अपनी शक्तियों को उसी में लगा देता है।

धार्मिक पुरुष अन्यायपूर्वक धन नहीं कमाएगा, आधा पेट रोटी खाकर सो रहेगा, किन्तु अधर्म के धन की इच्छा न करेगा। वह आलसी और प्रमादी भी नहीं होगा। समय का सदुपयोग करके अपनी शारीरिक, मानसिक और आर्थिक दशा सुधारेगा। वैराग्य का आसरा लेकर परिवार के प्रति अपने कर्तव्य पालन से बचना नहीं चाहेगा, वरन् उन्हें ईश्वर की पूजनीय प्रतिमा समझ कर ठीक प्रकार अपने धर्म का पालन करेगा। उसे आलस्य में पड़े पड़े स्वर्ग के स्वपन् देखने पसन्द नहीं होते, वरन् अपना एक कर्तव्य पूरा करके एक मोर्चा फतह करने वाले सेनापति की तरह सच्ची प्रसन्नता प्राप्त होती है। अकर्मण्यता और धर्म एक साथ नहीं रह सकते। कर्तव्यशील ही धार्मिक है और ऐसा धार्मिक पुरुष कदापि दीन-दरिद्र नहीं बन सकता।

धर्म का अर्थ है कर्तव्य। धार्मिक पुरुष चाहे वह गृहस्थ हो चाहे संन्यासी, दूसरों की भलाई के लिए कर्तव्य धर्म समझ काम करता रहता है। ऐसे कर्तव्य धर्म को स्वीकार कर लेता है, उसे न तो कठिनाईयाँ प्रतीत होती है और न दुःख शोक सताते हैं। धर्म का निश्चित परिणाम सुख है-धार्मिक व्यक्ति के हृदय में अभाव की दावानल नहीं जलेगी, उसकी जटाओं में से निर्मल गंगाजल की धारा बहती रहेगी। धर्म सूर्य है। कोई सभ्यता उसका उपहास करके तिरस्कृत नहीं कर सकती। अज्ञान तिरस्करणीय है, धर्म नहीं। आलोचकों! अज्ञान का तिरस्कार करो! धर्म का नहीं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118