शिखा के लाभ

June 1941

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(ले.वि.रामस्वरूप ‘अमर’ साहित्य रत्न, तालवेहट)

शिखा रखने का और प्रयोजन यह भी है कि जब यज्ञादि के द्वारा अमोघ तेज प्राप्त होता है, ये शरीरगत उष्णता (ऊष्मा) प्रबल हो जाती है, उसे तो बाहर जाना ही चाहिये। उसे निष्क्रमण वर्ग देने के लिये शिखा आवश्यक है। जिस तरह तालाबों के पानी की रक्षा के लिये उनके किनारे, बाँध वगैरह बाँधे जाते हैं और जल की स्वच्छता के लिये पानी जाने की नाली या नहर वगैरह बनाई जाती है। उसी प्रकार “शिखा-बन्धन” के समय वह तेज कुछ समय तक रुक जाता है और शिखा खोलने से प्रवाहित बनता है। यह अर्थ सातवें गण के परस्मैपदी शिख धातु के शेष रखना या रहना, बचना या पृथक् होना, इस अर्थ को बताने वाली धातु से निकलता है। जब इच्छा सहित त्रिगुणात्मक क्रिया-शक्ति पर जप प्राप्त हो जाय, तब जटा या शिखा का त्याग करना चाहिये। जैसे सरोवर के जल स्वच्छ रखने के हेतु नहर या नाली के निकालने की आवश्यकता रहती है, ताकि सरोवर का पानी स्वच्छ और निरोगताप्रद बना रहे। इसी प्रकार हमारे इस मानस सरोवर के बुरे विचार रूपी जल से हमारा सारा मानस सरोवर गंदला न हो जाय, इसी लिये शिखा द्वारा उस कुविचार रूपी जल का बहिर्निष्कासन आवश्यक है। प्राचीन समय में ब्रह्मचारी, यती, वानप्रस्थ, मुनि, महात्मा लोग अपने शिर पर टोपी या पगड़ी नहीं रखते थे, उनके वीर्य की रक्षा उनको प्राकृतिक टोपी या पगड़ी जिन्हें केश ही समझिये, करते थे। ञ्जद्धद्ग ॥ड्डह्द्वशठ्ठड्डद्य द्वड्डठ्ठ पुस्तक में अमेरिकन डॉक्टर ‘एण्ड्रोजेक्शन डेविस’ बतलाते हैं कि सिर, दाढ़ी, मूँछ के बालों को ईश्वर ने वीर्य रक्षा के लिये ही बनाया है। इनका यह दृढ़ कथन है कि जिनके सिर और दाढ़ी, मूँछ के बाल बड़े होते हैं, उनके शारीरिक वीर्य की वृद्धि इतर मनुष्यों से अच्छी पाई जाती है। बालों से वीर्य रक्षा में जो सहायता मिलती है, वह अन्य कृत्रिम उपायों से नहीं हो सकती है। यह बातें प्राचीन ऋषि महर्षियों को अच्छी तरह मालूम थीं, इसी से उन्होंने अपने ग्रन्थों में जटा आदि रखने का उपदेश दिया है। हारीत मुनि ने कहा है कि-

स्त्री शूद्रौ तु शिखाँ छिन्वा क्रोधाद् वैराग्यतोऽपि वा।

प्राजापत्यं प्रकुँर्व्वीत निष्कृति र्नात्यथा भवेत्॥

जब क्रोध या वैराग्य से स्त्री और शूद्र जाति तक के लिये प्राजापत्य प्रायश्चित बतलाया है, तो अन्य वर्णों की प्रतिक्रिया या प्रायश्त्यि क्रिया क्या हो सकती है? यह धार्मिक, वैज्ञानिक नैतिक समाजी स्वयं सोच सकते हैं। हाँ! यह बात दूसरी है कि आप अपने सिर पर पूरे बाल नहीं रख सकते, तो न सही किन्तु महा राष्ट्रीय ब्राह्मणों की भाँति अर्ध केश यानी गो खुर बराबर शिखा तो अवश्य ही रखना चाहिये। इससे मार्मिक स्थल की रक्षा ही न होगी, साथ साथ आयुवृद्धि होते हुये आपकी धर्म प्रियता का महान चिहृ भी होगा। श्री एमसे इजरेल कहते हैं- जिस समय सब लोग मुँडन कराने लगेंगे, उस वक्त प्रत्येक व्यक्ति निर्बल बन जायगा। इसलिये मनुष्यों को मूँड़ मुड़ा कर दुर्बल नहीं होना चाहिये। मृत व्यक्तियों की क्रियादि में भी ऐसा नहीं करना चाहिये।”

वास्तव में यह कथन भी यथार्थ है-जब से हमने मुँडन को महत्व दे दिया, तभी से हम कमजोर से बन गये हैं। प्राचीन पुरुषों जैसी हम में मानसिक, शारीरिक या नैतिक शक्ति भी नहीं रही। “हाथ कंगन को आरसी क्या”? हमारे सामने सिखों का उदाहरण ही मौजूद है। उनमें जितना सौंदर्य, बल, सहनशीलता आदि होते हैं, उतनी हम मूंड़ मुंड़ाने वाले रईसों में भला कहाँ से आ सकती है। वीर हकीकत राय से भला कहाँ से आ सकती है। वीर हकीकत राय से जिस समय नवाब ने यह कहा कि “तुम मुसलमानी गिलास से एक गिलास पानी पी लो, तो मैं तुम्हें छोड़ दूँगा और फंसी से मुक्त कर दूँगा।” किन्तु हकीकत राय ने उस पानी पीने से मरना ही श्रेयस्कर समझा और अपने धर्म के लिए मर कर अपना अमर नाम कर लिया। एक समय ऐसा था कि कितनी ही जातियों में शिखा रखने की प्रथा थी। उसका सम्बन्ध वे काल रक्षा के साथ मानते हुए अपना धर्म समझते थे। किन्तु आज “समयमेव करोति बलाबलम्” की उक्ति चरितार्थ हो रही है, जिससे हम उसके रहस्य ही को ही भूल बैठे हैं। शिखा रखने की महत्ता को हमारे आर्य-वैदिक ग्रन्थ-शास्त्रों ने ही नहीं मानी है, किन्तु पाश्चात्य विद्वानों ने भी शिखा की महत्ता माना है और वह कई जातियों में प्रचलित भी थी।


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