(श्री जिज्ञासु)
जल में वायु फँसी कारण वश, उसका पर्दा फूला।
चमचम करता चलता फिरता, निकला एक बबूला॥
वह आपर जल राशि मुद्दतों से बहती आती थी।
क्षण में ऐसे कोटि बुदबुदे रचती बिखराती थी॥
पर वह नया बबूला जिस दिन उपजा हंसता आया।
आँखें खुलते खुलते उनमें एक नशा सा छाया॥
पैर पंगु थे, हाथ नहीं थे, चढ़ा दूसरों पर था।
इस पर भी वह उछल रहा था, नहीं किसी का डर था॥
किरणें चमकीं तो उसने अपने को सूरज जाना।
हवा चली तो उसकी गति को अपनी शक्ति बखाना॥
हस्ती क्या थी? मगर ऐंठ में अकड़ा ही जाता था।
अपने को समर्थ, शासक, भूपति, यति बतलाता था॥
हँसी हवा भीतर की जो, देखी उसकी नादानी।
नष्ट हो गया हवा उड़ गई, पानी में था पानी॥
मैंने बहुत तलाश किया, पर मिला न कहीं बबूला।
मैं रो पड़ा-व्यर्थ कुछ क्षण के लिये अभागा फूला॥