एक तपस्वी ब्राह्मण धनाभाव के कारण बड़ा दुखी रहता था। सारा दिन ब्रह्मनिष्ठा में व्यतीत हो जाता। पैसे आने का कोई अन्य साधन न था। आकाशी जीविका से जो थोड़ी बहुत आय हो जाती, उसी से उनका कुटुम्ब अपना भरण पोषण कर लेता। आमदनी इतनी स्वल्प थी कि कुटुम्ब के लिए भोजन और वस्त्र भी पूरे न हो पाते।
नित्य के अभावों से दुखी होकर ब्राह्मण पत्नी ने एक दिन अपने पति से कहा-आर्य! नित्य के कष्ट अब असहनीय होते जाते हैं, इसलिए कोई ऐसा उपाय कीजिए जिससे यह कठिनाइयाँ कोई ऐसा उपाय कीजिए जिससे यह कठिनाइयाँ कम हो जावे। उस वन्य प्रदेश में ब्राह्मण क्या आजीविका कर सकता था, उसने बहुत सोचा कि अपने नियमित कार्यक्रम को पूरा करते हुए दृव्य उपार्जन की कुछ व्यवस्था कर सकूँ। पर स्थिति कुछ ऐसी ही थी, वहाँ कुछ कर नहीं सकता था। बहुत विचार करने के बाद भी जब वह किसी निश्चित परिणाम पर न पहुँच सका, तो ब्राह्मणी ने कहा-”नाथ! हम लोग अकर्मण्य नहीं हैं। प्रमाद या आलस्य में समय बिता कर या अयोग्यता के कारण अभाव नहीं भुगत रहे हैं। यदि हम अयोग्य और अकर्मण्य होते तब हो निश्चय ही हमें दुख भोगने के अधिकारी थे, परन्तु हम लोगों का जीवन तो लोक सेवा के लिए है। आप अपनी प्रकाण्ड विद्वता और उज्ज्वल आत्म शक्ति का उपयोग लोक सेवा के लिए कर रहे हैं। इसके बदले में क्या अन्न-वस्त्र की आवश्यकता हम समाज द्वारा पूरी करने के अधिकारी नहीं हैं? निश्चय ही साधारण जनता ऐसे अप्रत्यक्ष सेवकों का महत्व अच्छी तरह पहचान नहीं पाती, जिनके द्वारा निर्मल ज्ञान गंगा का आविर्भाव होता है और जो अपनी आत्मशक्ति द्वारा जन समाज के दुखदायी अनिष्टों को दूर करने के भागीरथ प्रयत्न में प्रवृत्त रहते है। यदि अज्ञान वश लोग हमारी आवश्यकताओं की ओर ध्यान नहीं देते हैं। तो हमें इसके लिए उन्हें चेताना चाहिए।”
ब्राह्मण के मुख पर हंसी की एक रेखा दौड़ गई। वह समझ गया कि ब्राह्मणी की इच्छा किसी सम्पन्न व्यक्ति से कुछ माँग लाने की है। सन्तोषी ब्राह्मण का स्वभाव कुछ कोच शील था, वह अपने को अधिक से अधिक तपस्या की कसौटी पर कसना पसन्द करता था, परन्तु जब ब्राह्मणी का आग्रह देखा, तो उसे इसमें भी कुछ अनुचित न प्रतीत हुआ कि किसी सम्पन्न व्यक्ति से कुछ याचना करनी चाहिए। तपस्वी ने ब्राह्मणों की ओर स्वीकृति सूचक शिर हिला दिया।
दूसरे दिन प्रायः काल नित्यकर्म से निवृत्त होकर ब्राह्मण उत्तर दिशा के लिये चल दिया और कई दिन की यात्रा को पार करते हुए उस देश के राजा के नगर में जा पहुँचा। राजदूतों ने उसके आने की सूचना राजा को दी। समाचार पाते ही राजा उनकी अगवानी को दौड़ा आया। वह जानता था कि धनी और शक्तिशाली होने का सच्चा महत्व इसमें है कि इससे लोकसेवी महानुभावों की सेवा और सहायता की जावे। कई व्यक्तियों की स्थिति धन और सत्ता एकत्रित करने की होती है। वे प्रत्यक्ष शरीर से संसार की भलाई का कोई अधिक कार्य नहीं कर सकते, ऐसे लोगों का कल्याण इसी में है कि वे अपनी शक्ति को अधिक से अधिक मात्रा में साधुजनों के समर्पण कर दें। राजा ने इस मानव धर्म को समझा था और वह साधुजनों की सेवा के लिए सदैव प्रस्तुत रहता था।
बड़ी आवभगत के साथ तपस्वी को अतिथिशाला में ठहराया गया। उनका वैसा ही आतिथ्य सत्कार किया गया, जैसा कि बड़े-बड़े राज-कर्मियों का होता है। ब्राह्मण से उस दिन अपनी थकान मिटाई और अतिथिशाला में विश्राम करते रहे। दूसरे दिन राजा उनके सम्मुख आया और प्रणाम करके विनम्र भाव से पूछा-भगवन्। आज्ञा दीजिए। इस सेवक के लिए क्या सेवा है। ऋषि ने सरल स्वभाव से अपने आगमन का कारण कह सुनाया।
कोषाध्यक्ष को बुला कर राजा ने आज्ञा दी दस हजार रुपया इन महापुरुष को भेंट किये जाएं। रुपया जब ब्राह्मण के समक्ष आए तो उनके लिये पर प्रसन्नता नहीं, वरन् खिन्नता की रेखायें बच गई। राजा ने पूछा-महात्मन् कदाचित यह धन कम है, क्या इससे अधिक उपस्थित करूं? ब्राह्मण ने कहा-’हाँ!’ अब दस हजार अशर्फियाँ लाई गईं। यह भी कम बताई गईं। राजा ने क्रमशः अधिक उपस्थित किया पर वह भी थोड़ा ही कहा गया। हाँ यहाँ तक कि राजा ने अपना सारा खजाना और जय उनके रखा पर ब्राह्मण को इससे भी संतोष न हुआ।
तब राजा ने पूछा-मेरे पास यही वस्तुएं थीं अब इस के अतिरिक्त जो वस्तु आप चाहते हैं वह स्वयं बतलाने की कृपा करें। ब्राह्मण ने कहा-राजन, का महत्व धन के अधिक परिमाण में होने में नहीं वरन् उत्तम भावनाओं के साथ दान करने है और उत्तम भावनाएं उसी धन में हो सकती हैं बीसों उंगलियों के परिश्रम से कमाया गया हो। तुमने यह सब धन अपने परिश्रम से कमाया है नहीं तो इस धन को देकर तुम्हारा और लेकर मेरा कुछ विशेष भला न होगा। मुफ्त का माल देने लेने वाले में से किसी का कल्याण नहीं कर सकता, यदि तुम्हारा अपने परिश्रम से कमाया हुआ धन हो तो वह मुझे दे दो।
राजा ने ध्यानपूर्वक तलाश किया पर उसे कमाया हुआ एक पैसा भी प्रतीत न हुआ। ऋषि खाली हाथों लौट जाने को तैयार होने लगे ने उनसे करतब प्रार्थना की कि प्रभो! आज मत जाइये। रात को मैं मजूरी करूंगा और जो धन मुझे मिलेगा आपको दे दूँगा। ऋषि प्रसन्नता को ठहर गये।
दिन को राजा किसकी मजूरी करता? और कौन उससे करवाता? इसलिए उसने रात का समय इसके लिए तय किया। जब एक पहर रात चली गई तो पुराने कपड़े पहन कर राजा मजदूरी की तलाश में निकला। शहर के गली कूँचों में घूमते हुये उसने एक जगह देखा कि एक लुहार की भट्ठी जल रही है राजा ने उससे प्रार्थना की कि यदि कोई काम हो तो उसे रात भर के लिए नौकर रख ले। लुहार को एक आदमी की जरूरत भी थी, उससे कहा चार बजे तक भट्टी की धोंकनी चलाना तुम्हें चार पैसे मिलेंगे। राजा धोंकनी चलाने लगा और प्रातः काल चार पैसे लेकर अपने घर चला आया।
दूसरे दिन वह चार पैसे ले जाकर उसने ब्राह्मण के सामने रख दिये और उन्हें किस प्रकार कमाया इसका सारा वृत्तान्त बता दिया। तपसी प्रसन्न होता हुआ उन चार पैसों को लेकर चल दिया। घर पर ब्राह्मणी प्रतीक्षा कर रही थी कि पति महोदय धन लेकर आते होंगे जिससे गृहस्थी की सारी वस्तुएं खरीदूँगी। कई दिन की प्रतीक्षा के बाद ब्राह्मण जब घर पहुँचा तो सब को बड़ी प्रसन्नता हुई और उत्सुकतापूर्वक उस धन को देखने के लिए सब उनके पास एकत्रित हो गये। देखा तो केवल चार पैसे उनके टेंट में लगे हुए थे। ब्राह्मणी दुख और क्रोध से झुंझला गई उसने उन चार पैसों को उठा कर दूर फेंक दिया।
घर भर में निराशा और असंतोष की विचार धारा बह रही थी। रात को किसी ने भोजन नहीं किया और सब यों ही सो रहे। उन फेंके हुए पैसों को कूड़े में से ढूंढ़ने तक की किसी की हिम्मत न हुई। सब लोग यों ही कुड़-कुढ़ाते हुए अपनी चटाइयों पर निद्रामग्न हो गये।
प्रातः काल देखा गया कि उसके ढेर पर चार बड़े सुन्दर पेड़ खड़े हुए हैं, जिन पर चाँदी के पत्ते सोने के फल और हीरों के फल लगे हुए हैं। उसकी एक-एक टहनी का मूल्य करोड़ों रुपया होता। ऐसे वृक्ष को पाकर भला किस प्रकार का अभाव रहता उनका घर धन-धान्य से भर गया।
दूर-दूर से लोग उन वृक्षों को देखने आये स्वयं राजा उन्हें देखने आया। सब का अर्श्चय निवारण करते हुए ब्राह्मण ने कहा-सज्जनों! बीसों उंगलियों की कमाई का फल ऐसा ही है।