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July 1941

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(आचार्य रविशंकर विजय शंकर पाँडे, सूरत)

गत मास जब मैं अखंड ज्योति कार्यालय में माननीय शर्मा जी से मिलने गया था, तो वहाँ ज्ञान प्रचार की दिशा में मुझे बहुत काम होते हुए दिखाई पड़ा। सम्पादक जी कुछ गिने-चुने महानुभावों के आध्यात्मिक उपदेशों को अनेकानेक ग्रन्थों में से संकलित कर रहे थे। यह आध्यात्मिक संदेश इतनी मिठास भरी हुई और हृदयस्पर्शी भाषा में नवीन ढंग से लिखे जा रहे थे कि इनकी एक पंक्ति पढ़ते ही पूरे लेखों को पढ़े बिना चैन नहीं पड़ता था। समर्थ गुरु रामदास, ऋषि तिरुवल्लुवर, महात्मा बुद्ध, महात्मा महावीर, गुरुनानक, महर्षि दयानन्द, जेम्स ऐलन, आदि ऋषियों के वचन प्रसंगों के अनुसार अध्यायों के रूप में लिखें जा रहे थे। इसी प्रकार वेद, कुरान और बाइबिल के धर्मों उपदेशों की बड़ी ललित लेख मालाएं तैयार हो रही थीं। हृदय के तारों को झंकृत कर देने वाली ऐसी अनूठी पाठ्य सामग्री मैंने अब तक हजारों लाखों पुस्तकें पढ़ कर भी प्राप्त नहीं की थी। इन्हें पढ़ते हुए मैं आनन्द विभोर हो जाता था। दो रोज ठहरने के लिये गया था, परन्तु शर्मा जी की हस्तलिखित कृतियाँ पढ़ने के लिये एक सप्ताह ठहरना पड़ा। चलते समय मैंने पूछा कि यह महापुरुषों के दिव्य सन्देश कब तक छप जायेंगे, तो शर्मा जी का चेहरा उदास हो गया। मैं समझ गया कि अखंड ज्योति के घाटे में यह अपना बहुत पैसा दे चुके हैं, जिन सोलह पुस्तकों का विज्ञापन किया था, उनमें से केवल आठ ही छपी हैं। ऐसी दशा में इन पुस्तकों के अमृत रस से अपना हृदय तृप्त करने में जिज्ञासुओं को बहुत दिन तक वंचित रहना पड़ेगा। यह महापुरुषों के अमृत वचनों की पुस्तकें कब तक छपेगी। इस प्रश्न का उत्तर मौन में मिला, तो मैंने समझ लिया कि इसका कारण सम्पादक जी की आर्थिक असमर्थता है।

कितने दुख की बात है कि इस देश में धर्म के नाम पर रुपया पानी कि तरह बहाया जाता है। धनी लोग अन्याय कार्यों में बड़ी सी धन-राशि दान करते हैं, परन्तु सद्ज्ञान के प्रचारार्थ, उत्तर ग्रन्थों को प्रकाशित करने के लिये, किसी का ध्यान नहीं जाता। इसके दो ही कारण हो सकते हैं, एक तो सम्पादक जी का किसी से न कहने का संकोच शील स्वभाव, दूसरा लोगों की अनभिज्ञता। अखंड ज्योति परिवार के महानुभावों की उदारता, धर्म निष्ठा और सच्चे कार्य में मदद करने की विवेक बुद्धि में मेरा विश्वास है। उनमें बहुत से ऐसे महानुभाव होंगे जो महापुरुषों के वचनों की एक-एक पुस्तक प्रकाशित कराने का खर्च अपने पास से दें इससे पुस्तकें जिज्ञासुओं के सामने आएगी और उनकी बिक्री से अखंड ज्योति का घाटा पूरा होता रहेगा। ये पुस्तकें करीब 50-50 पृष्ठ की हैं छपाने वाले का चित्र भी उस पुस्तक में रहेगा। मैंने हिसाब लगाया तो हर पुस्तक पर कोई 45 या 50 की लागत चित्र खर्च समेत बैठती है। अखण्ड ज्योति के प्रेमियों से जोरदार प्रार्थना है कि जिन्हें ईश्वर प्रेरणा करे वे एक पुस्तक का खर्च स्वयं दे सकें तो स्वयं, अन्यथा कई मित्र मिल कर इकठ्ठा करें। और जिस महापुरुष की नीति से प्रेम है उनके अभिवचनों की एक पुस्तक प्रकाशित करा दें साथ ही प्रकाशित कराने वाले महानुभाव अपने चित्र उस पुस्तक में छपाने के लिये अपना फोटो भेज दें। ज्ञान प्रचार कार्य में यह सहयोग करना मेरी दृष्टि में एक अनूठा पुण्य है। यह गंगा में जौ बोने के समान है जिसका फल दाता को तब तक मिलता रहेगा जब तक उसके बीज-बीज उग रहेंगे। साथ ही इसमें कीर्ति और यश भी पर्याप्त है।


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