शक्ति या सेवा

July 1941

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एक बार आँधी और मंद वायु में भेंट हुई। आँधी ने अपनी शक्ति की प्रशंसा करते हुए कहा-देखो मैं जब उठती हूँ तो दूर-दूर तक लोगों में हलचल मच जाती है । मनुष्य अपने घरों में घुस जाते हैं पशु-पक्षी जान बचा कर भागते हैं। बड़े-बड़े मकान और पेड़ों को बात की बात में तोड़-मरोड़ कर रख देती हूँ, उस समय बाहर हर किसी की जबान पर मेरी ही चर्चा होती है और जब चली जाती हूँ तो भी वे मुझे बहुत दिन तक भूल नहीं पाते। क्या तुम मेरे जैसी शक्ति नहीं चाहतीं।

मंद वायु ने मुस्करा कर कहा मुझे ऐसी शक्ति नहीं चाहिए। मुझे तो सेवा में ही बड़ा आनन्द आता है। जब बसंत का सुखदायी संदेश लेकर बहती हूँ तो नदी, तालाब, जंगल, खेत, सभी मुस्कराने लगते हैं। चारों ओर रंग बिरंगे फूलों के गलीचे बिछ जाते हैं, सुगंध से दिशाएं सुवासित हो उठती हैं। वृक्ष हरियाली से लद जाते हैं। पशु-पक्षी आनंद की किलकारियाँ मारते फिरते हैं। चारों ओर आनन्द ही आनन्द फूट पड़ता है।

आँधी से लोग डरते हैं और उसे बहुत समय तक याद रखते हैं। मंद वायु से प्रसन्न होते हैं और कुछ समय बाद उसे भूल भी जाते हैं फिर भी आँधी और मलय मरुत की तुलना नहीं हो सकती। एक में शक्ति है दूसरी में सेवा। शक्ति एक तड़क-झड़क है जो कुछ घड़ी में नष्ट हो जाती है सेवा में सादगी है पर उसकी जड़ अमर लोक में है। शक्ति डराती है किन्तु सेवा आनन्द की सृष्टि करती है। यदि सेवा न हो तो यह दुनिया वीरान हो जावे।

लोग सत्ता, शक्ति, शासन, पैसा, अधिकार चाहते हैं क्यों? इसलिए कि आँधी की तरह लोगों को डरा सकें, अथवा प्रदर्शन कर सकें, और अपने नाम की चर्चा सुन सकें। उन्हें जानना चाहिए कि इन वस्तुओं का मूल्य तूफानी आँधी जितना है। चाहने-योग्य वस्तु तो सेवा है जिससे अपने और दूसरों के हृदयों में प्रसन्नता की बीन बजने लगती है।


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