अमर नारद

July 1941

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वह इस बात को मानने वाले न थे कि, यह सार मिथ्या है। इससे उदासीन रह कर आत्मकल्याण में ही रत रहना चाहिये। वे इस प्रकार के विचारों को स्वार्थ पूर्ण समझते हुए देखते थे, वे प्राणिमात्र को ईश्वर की पूजनीय प्रतिमा समझते थे अनन्य भाव से उसकी भक्ति करते थे। परमार्थ उनका स्वार्थ था। जिसकी आत्मा उन्नत होती है, विकास के मार्ग पर अग्रसर होती है, उसके लिए सबों का स्वार्थ अपने स्वार्थ की अपेक्षा किसी दृष्टि से न्यून नहीं होता, वरन् वह अन्य प्राणियों के सुख के लिए स्वयं कष्ट उठाने के लिए तैयार रहते हैं।

नारद ऐसे ही महापुरुष थे। सतयुग के आदि यह ब्रह्मर्षि अपने तपोबल से मुक्ति के अधिकारी रह चुके थे। उनके लिए कुछ कर्तव्य शेष नहीं था, सिद्धियों के बल पर वे सब प्रकार के सुख भोग सकते थे, इन्द्रलोक में उनका समुचित आदर था, विष्णु तो उनके घने मित्र थे, शारीरिक और मानसिक शक्तियाँ पूर्णता प्राप्त कर चुके थे। ऐसी आत्मा को पूर्ण पुरुष ही कहना चाहिए।

परन्तु उन्हें इतने से ही संतोष न हुआ। होता भी कैसे, मनुष्य की आत्मा स्वार्थ तत्वों से बनी हुई नहीं है। परमात्मा हर घड़ी देता रहता है, आत्मा भी दानी स्वभावी है। देने से, त्याग से, उपकार से ही उसे शान्ति मिलती है। संसार के दुखी प्राणियों को देख कर उनका हृदय रो पड़ा। उन्होंने सोचा मैं प्रभु की पवित्र संतान हूँ। मेरा कर्तव्य है कि अपने पिता की तरह विश्व हित में अपने को प्रवृत्त कर दूँ। वे आर्त प्राणियों की सेवा में जुट पड़े।

संसार की सेवा किस प्रकार की जाय? पैसा या अन्य भौतिक वस्तुएं दान करने से दूसरों को कुछ तात्कालिक सहायता मिलती है, परन्तु उससे उनका क्लेश नहीं मिट सकता। वह वस्तु समाप्त होते ही फिर नई आवश्यकता उठ खड़ी होती है। इसलिये सबसे उत्तम दान ‘ज्ञान दान’ है। मनुष्य के पास किसी वस्तु का अभाव नहीं है। उसकी इच्छा मात्र से समस्त चीजें प्राप्त हो सकती हैं, कमी केवल ज्ञान की है। किसी को ज्ञान दान देकर उसे सच्चे रास्ते पर लगा देना यही सर्वश्रेष्ठ और अक्षय ब्रह्म दान है। नारद ने इस ब्रह्म दान द्वारा तप्त प्राणियों के क्लेश मिटाना अपना जीवन लक्ष बनाया।

वे अपनी वीणा को लेकर संसार के एक सिरे से दूसरे सिरे तक ज्ञान का उपदेश करते हुए घूमने लगे। कोई पूछे या न पूछे उन्हें धर्मोपदेश देना, कोई सुने या न सुने उन्हें भगवत् गुणानुवाद का गान करना। उन्हें इस काम में बड़ा रस आता। संसार की सेवा करना उन्हें किसी भी योग साधना से उत्तम प्रतीत होने लगा। वे क्रियात्मक रूप से संसार के झगड़े मिटाने में भाग लेते और उत्तम कार्यों के आयोजना में बड़ी दिलचस्पी दिखाते। अभी विष्णु और लक्ष्मी का विवाह कराने की साठ गाँठ कर रहे हैं तो अभी इन्द्र और पुरुरवा का झगड़ा सुलझाने लगे हुए हैं। उर्वसी नामकी अप्सरा को प्राप्त करने के लिए इन्द्र और राजा पुरुरवा लड़ रहे थे, भयंकर युद्ध होने की संभावना थी, नारद बीच में जा धमके उन्होंने एक वेश्या के लिये दोनों को लड़ने के लिये धिक्कारा और इन्द्र को इसकी ओर से उदासीन करके झगड़ा मिटवाया। उन्हें पापों के जल्दी नाश कराने की बड़ी उतावली रहती थी, इसीलिए वे ऐसी कूटनीतिक चालें रचा करते थे, जिससे दुष्टों का शीघ्र नाश हो। कंस को उलटी पट्टी पढ़ा कर नाश का समय बिलकुल निकट बुला ही तो दिया। संसार में ये कटु घटनाएं भी उत्पन्न कराते थे। क्यों? इसलिए कि उनका अन्तिम परिणाम विश्व के लिए कल्याणकारी हो। पार्वती नामक राजकुमारी को शिव जैसे योगी के साथ विवाह करने के लिए सिखा दिया। सावित्रि को, सत्यवान नामक उस व्यक्ति के साथ विवाह कर लेने के लिये समझा दिया जो एक वर्ष बाद ही मर जाने वाला था। राजकुमार ध्रुव को तप करने के लिये प्रवृत्त कर दिया। दुनियादार लोगों की दृष्टि से इस प्रकार की शिक्षा देना बहका देना कहा जायगा। उस समय भी कहा गया होगा। परन्तु नारद उस मिट्टी के बने हुए न थे जो किसी के कड़ुए शब्दों से विचलित हो जाते हैं और सस्ती वाहवाही के लिये जन-रुचिकर कार्य करते रहते हैं। उन्होंने अपने उपदेशों द्वारा अरुचिकर घटनायें उत्पन्न की, परन्तु अन्ततः वे कड़ुई घटनायें ही उत्तम फलवती सिद्ध हुईं।

महर्षि व्यास महाभारत की रचना कर चुके थे। ऐसे महाकाव्य की सर्वत्र भूरि-भूरि प्रशंसा हो रही थी। नारद ने उस ग्रन्थ को देखा और अनुभव किया कि कोरे इतिहास और नीति शिक्षण से ही मनुष्य की आत्मिक आवश्यकता पूर्ण नहीं हो सकती, उसे सच्ची शान्ति के लिए भक्ति और ईश्वरोपासना की भी आवश्यकता है। वे व्यास के पास जा पहुँचे और समझा-बुझा कर इस काम के लिये तैयार किया कि आध्यात्मिक उपासना और भक्तिरस से पूर्ण एक महा काव्य की रचना करें। तदनुसार व्यास जी ने श्रीमद्भागवत् महापुराण की रचना कर डाली।

कहते हैं कि नारद अमर हैं। ऐसे महापुरुष का शरीर यदि मर भी गया होगा तो भी वे अमर हैं। जिन्होंने अपने तुच्छ स्वार्थ और शारीरिक सुखों को तिलाँजलि देकर संसार के सुख को अपना सुख और परमार्थ को स्वार्थ समझा और उसी में अपना जीवन तिल-तिल करके खपा दिया वे मर नहीं सकते। विश्व हितकारी नारद अमर हैं और अमर रहेंगे।


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