दूसरों की सेवा क्यों करें?

July 1941

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एक दिन शरीर की कर्मेन्द्रियों ने सोचा कि हम लोग परिश्रम करते-करते मरे जाते हैं और वह पेट हमारी कमाई को यों ही मुफ्त में हजम करता रहता है। हाथ, पाँव, आँख, कान आदि ने इस बात पर बड़ा असंतोष प्रकट किया कि हम दिनभर पिसते हैं फिर क्या कारण है कि दूसरे हमारे परिश्रम का फल भोगें और हम यों ही रह जावें। यही हम कमाएंगे तो हमीं खावेंगे अन्यथा काम न करेंगे, और हड़ताल करके बैठे रहेंगे।

पेट ने सब अंगों को बुलाया और समझाया कि पुत्रों! मैं तुम्हारी कमाई को खुद नहीं रख लेता हूँ, जो कुछ तुम मुझे देते हो उसे बड़े परिश्रम के साथ तुम्हारी शक्ति बढ़ाने के लिये द्रव्य बनाता हूँ और उसे तुम्हारी ही भलाई में खर्च करता रहता हूँ। यह क्रिया तुम्हें आँखों सें नहीं दीखती, फिर भी विश्वास रखो तुम्हारा परिश्रम अप्रत्यक्ष रूप से तुम्हें ही वापिस मिल जाता है। इसलिये हड़ताल मत करो, वरन् अधिक उत्साहपूर्वक काम करो जिससे मैं तुम्हें अधिक लाभ पहुंचा सकूँ और हृष्ट-पुष्ट तथा बलवान बना सकूँ।

वह बात किसी इन्द्रिय की समझ में न आई। उन्होंने कहा तुम पूँजीपति हो, ऐसी ही मीठी-मीठी बातें बना कर हमारा शोषण करते रहते हो। हम तो अब अपना परिश्रम स्वयं ही लेंगे, वरना हड़ताल करेंगे। बेचारा पेट बहुत समझाता बुझाता रहा, पर उसकी किसी ने एक न सुनी और सबने अपना-अपना काम छोड़ दिया।

जब सब अंगों ने काम करना ही बन्द कर दिया, तो भोजन पेट में कैसे पहुँचता। नतीजतन पेट भूखा रहने लगा। क्षुधा-ज्वाल से शरीर के रस सूखने लगे और अंगों की शक्ति नष्ट होने लगी। नेत्रों के आगे अंधेरा छाने लगा, कानों में सुनन सुनन की आवाज होने लगी, पैरों की भड़कन बढ़ गई, हाथों का उठना भी कठिन हो गया। थकावट और बेचैनी के मारे सारे अवयव घबराने लगे।

तब मस्तिष्क ने इन्द्रियों से कहा-मूर्खों तुम्हारा परिश्रम कोई नहीं खा जाता। वह लौट कर तुम्हें ही वापिस मिलता है। यह मत सोचो। दूसरों की सेवा करके हम घाटे में रहते हैं। ऐसा ख्याल नासमझी के कारण ही होता है, असल जो कुछ तुम दूसरों को देते हो वह ब्याज समेत तुम्हारे पास वापिस लौट आता है। अपना कर्तव्य करो-फल तो ईश्वर तुम्हें दे ही देगा।

हड़ताल करने के बाद इन्द्रियों की समझ में आ गया कि दूसरों के साथ की गई भलाई अकारण नहीं जाती। वह लौट कर फिर हमारे पास आ जाती है। परोपकार करना मूर्खता नहीं, बुद्धिमानी है क्योंकि इसका फल जितना दूसरों को मिलता उसका कई गुना स्वयं हमें ही मिल जाता है।


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