जूठे पत्ते

July 1941

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(रचियता-पंडित बालकृष्ण शर्मा “नवीन”)

क्या देखा है तुमने नर को, नर के आगे हाथ पसारे?

क्या देखे हैं तुमने उसकी, आँखों में खारे फव्वारे?

देखे हैं? फिर भी कहते हो कि तुम नहीं हो विप्लवकारी?

तब तो तुम पत्थर हो, या महाभयंकर अत्याचारी।

लपक चाटतै जूठे पत्ते, जिस दिन मैंने देखा नर को,

उस दिन सोचा क्यों न लगा दूँ, आज आग इस दुनिया भर को,

यह भी सोचा क्यों न टेंटुआ, घोटा जाय स्वयं जगपति का,

जिसने अपने ही स्वरूप को, रूप दिया इस घृणित विकृति का,

जगपति कहाँ? अरे, सदियों से, वह तो हुआ राख की ढेरी।

वरना समता संस्थापन, में लग जाती क्या इतनी देरी।

छोड़ आसरा अलख शक्ति का, रे नर, स्वयं जगपति तू है।

तू गर जूठे पत्ते चाटे, तो मुझ पर लानत हे, थू है।

कैसा बना रूप यह तेरा, घृणित, दलित, वीभत्स भयंकर,

नहीं याद क्या मुझको, तू है चिर सुन्दर, नवीन, प्रलयंकर,

भिक्षा-पात्र फक हाथों से, तरे स्नायु बड़े बलशाली,

अभी उठेगा प्रलय नींद से, जरा बजा तू अपनी ताली,

औ भिखमंगे, अरे पतित तू, मजलूम, अरे चिरदोहित।

तू अखंड भण्डार शक्ति का, जाग अरे निद्रा संमोहित।

प्राणों को तड़पाने वाली, हुँक्कारों से जल-थल भर दे,

अनाचार के अम्बारों में, अपना ज्वलित फलीता धर दे।

भूखा देख मुझे गर उमड़ें, आँसू नयनों में जग-जन के,

तो तू कह दे नहीं चाहिये, हमको रोने वाले जनखे,

तेरी भूख, जिहालत तेरी, यदि न उभाड़ सके क्रोधानल-

तो फिर समझूँगा कि हो गई, सारी दुनिया कायर, निर्बल,

-प्रताप

*समाप्त*


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