अमर-ज्योति

July 1941

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(रचयिता-श्री शशिमूषण)

विहंसो, विकसो, प्रिय! अमर बना, मैं अमर-ज्योति-निर्माण करूं!

तुम मुकुल मुकुल में हास बनो, मैं नव-जीवन बन कर, उतरुं!

यह नहीं स्वप्न या सम्भ्रम है, यह ज्योतित जागृति का क्रम है!

प्रिय, आशा के सुरभित-प्रफुल्ल, अरुणोदय का मधु-आगम है!

तुम गगन-अजिर में नखत भले, मैं। तरल-तुहिन-कण बन बिखरुं!

विहंसो, विकसो, प्रिय, अमर बनो, मैं अमर ज्योति निर्माण करूं!

निज भाग्य-लीक विपरीत रहे, जीवन में हार कि जीत रहे!

मेरी वंशी के छिद्रों में, गोतीत क्वणनमय गीत रहे!

तुम विश्व-वेदना में पिघलो, मैं विश्व वेदना पी उभरुं।

बिहंसो, विकसों, प्रिय, अमर बनो, मैं अमर-ज्योति निर्माण करुं!

प्रिय, एक हूक मंडराती है, भावना-कुसुम बिखराती है!

प्राणों के स्तर में गोपन से, सुध बन-बन कर छा जाती है!

तुम नवल-विभा प्रस्तीर्ण करो, मैं नीलम-आशा सा निखरुं!

बिहंसो, विकसो, प्रिय अमर बनो, मैं अमर ज्योति निर्माण करुं!


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