आश्रम धर्म

July 1941

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(महात्मा गाँधी)

चारों आश्रम एक दूसरे के साथ इस प्रकार मिले हुए हैं कि एक के बिना दूसरे का पालन नहीं हो सकता ब्रह्मचर्याश्रम में तो मनुष्य का जन्म ही होता है, इस लिये इस आश्रम को बिलकुल अनिवार्य समझना चाहिए। इस दिव्य आश्रम को जीवन पर्यन्त या दीर्घकाल तक पालन करने का मनुष्य को अधिकार है। फिर भी कम से कम लड़कियों को 18 वर्ष तक और लड़कों को 24 वर्ष तक पवित्रता पूर्वक ब्रह्मचर्य आश्रम का पालन करना ही चाहिए।

यह विचार बिलकुल भ्रमपूर्ण है कि गृहस्थाश्रम तो भोग विलास के लिये है। हिन्दू धर्म की सारी व्यवस्थाएं संयम की ही परिपुष्टि के लिये हैं। इस धर्म में भोग विलास कभी अनिवार्य नहीं हो सकता। सादगी और संयम तो गृहस्थाश्रम का आभूषण है। परन्तु कितने ही मनुष्य भागों के आकर्षण से बच नहीं पाते इसलिये गृहस्थाश्रम में भोगों की मर्यादा बाँध दी गई है। आज तो सभी मनुष्य गृहस्थ वृत्ति में, प्रजा वृद्धि में प्रवृत्त हैं। इससे अधिकतर व्यभिचार और स्वेच्छाचार की ही वृद्धि होती है।

इस प्रकार के व्यभिचारी और स्वेच्छाचार का जीवन बिताते हुए अन्त समय में वानप्रस्थ या संन्यास का पालन असंभव हो जाता है। गृहस्थ को चाहिए कि वह क्रमशः इन भोगों को कम करता हुआ ब्रह्मचर्य को पुनः सतेज बनावे और वानप्रस्थ को अपनावें। भोगेच्छाओं पर विजय प्राप्त करने के लिये इन्द्रियों का संयम करना ही वानप्रस्थ है।

जिसने राग, द्वेष को पूरी तरह से जीत लिया और जो तन, मन तथा वचन से सत्य, अहिंसा आदि यमों का पालन करता है, उसे संन्यासी कहा जा सकता है। ऐसा संन्यासी निष्काम भाव से सेवा करने में अपने जीवन को लगाता है और निर्वाह का आधार भिक्षा समझता है।

आश्रमों का बाहरी वेष-भूषा से कोई सम्बन्ध नहीं है।


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