योगियों की आवश्यकता

July 1941

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(योगी अरविन्द घोष)

कार्य करना भी एक साधना है। अपने जीवन में हम जो कुछ कर रहे हैं, वह सब भगवान के लिए ही कर रहे हैं। ऐसा ज्ञान रखकर ही कर्म करना चाहिए। कुछ न कुछ करना ही चाहिए, ऐसा समझ कर जो कुछ सामने आए उसी में लग जाय, यह कोई उचित बात नहीं है। हमें कर्म करना चाहिए, किन्तु अपनी अन्तरात्मा की पूर्ण आज्ञा से। यही नहीं भीतर से हमें जिस काम के करने के लिए जैसी प्रेरणा हो, उसी के अनुसार कर्म करने के लिए हमें तत्पर होना चाहिए।

यहाँ पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि-सामने तो बहुत से काम है, उनमें से कौन सा काम हमें करना चाहिए? कौन सा कर्म हमारा निर्दिष्ट कर्म है इसी का निर्णय करने की आवश्यकता है। मनुष्य का स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि वह किसी गंभीर और विचारपूर्ण विषय में जल्द प्रवेश नहीं करना चाहता। वास्तव में यह कार्य उसके लिए कठिन भी है। पाप पुण्य का स्वरूप बिलकुल भिन्न है। भय से चुप रहना पाप परिणामी है और शक्ति होते हुए भी उसका संयम करके क्षमा से चुप रहना पुण्य है। बुद्ध राजा के घर में पैदा हुए थे और बचपन से ही सुख में रहे थे, तो भी उन्होंने राज सुख को लात मार दी। इसका नाम है सच्चा त्याग। परन्तु जिस के पास खाने को नहीं है, ऐसा भिखारी यदि एकादशी का व्रत करे तो क्या उसे कोई पुण्यात्मा कहेगा।

जब हमें यह मालूम होता है कि हम प्रज्ञ नहीं है, वास्तव में हम समता और शान्ति का कवच पहने हुए नहीं है, तो यह बात मन में आये बिना नहीं रहती है कि-’भाई! यह ढोंग छोड़ दो और प्रबल प्रतिकार करके आगे बढ़ो।’ कर्म की भलाई बुराई का निर्णय का लेना सब लोगों के लिए आसान नहीं है, इसीलिये तो दुनिया में भेड़चाल की प्रथा है। जनता प्रायः किसी बड़े प्रभावशाली या नेता के ऊपर अवलंबित रहती है और जहाँ तक हो सकता है अपने नेता के पीछे अनुगमन करती है।

देश के अनेक व्यक्ति विभिन्न नेताओं के विश्वास पर अपने मार्ग निर्धारित करते हैं। कुछ दिनों के उत्साह के बाद वे देखते हैं कि इस प्रकार जीवन की उच्च अभिलाषाएं पूर्ण नहीं होतीं और न मन एवं बुद्धि को संतोष होता है। ऐसी दशा में वे खिन्न और निराश हो जाते हैं। भगवत् साधना में जीवन को पुष्ट किये बिना आगे बढ़ना तथा अपनी शुद्ध वासनाओं को प्रभु के चरणों पर उत्सर्ग किये बिना किसी भी कार्य में शान्ति नहीं मिल सकती। परमात्मा को एक शक्ति का केन्द्र मान कर उसके आधार पर बहुत कुछ किया जा सकता है। हमारे नेताओं की यदि अर्न्त दृष्टि हो, वे आध्यात्मिकता को ध्यान में रखकर काम करें, तो सर्वत्र एक विचित्रता दिखाई देने लगे। भारत को सब से अधिक आवश्यकता कर्मनिष्ठ योगियों की है।


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