(स्व स्वामी विवेकानन्द जी)
भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को दाँभिक और डरपोक कहा है, इस पर कई लोग बड़ा आश्चर्य करते हैं। अर्जुन को गुरुजनों और स्नेहियों के साथ युद्ध करना पाप जान पड़ा, जब कि सम्पूर्ण विश्व पर प्रेम करना हमारा कर्तव्य है, तब स्वजनों का वध करना मानो प्रेम की खुली तिलाँजलि देना है। इस प्रकार अर्जुन युद्ध में प्रवृत्त नहीं होते थे।
यह अच्छी तरह जानते हुए भी कि हम में शक्ति मौजूद है, यदि हम दुष्ट का प्रतिकार न करें, तो वास्तव में वह एक पुण्य कार्य है, परन्तु अहिंसा के सिद्धान्त के पीछे अपनी कायरता को छिपाना बड़ा भारी पाप होगा। अपने सामने बड़ी भारी सेना देख कर अर्जुन का चित्त क्षण भर में कम्पित हो उठा और उसी दशा में अहिंसा का सिद्धान्त याद आया, परन्तु इस सिद्धान्त के याद आते ही वह अपना कर्तव्य भूल गया, वह अहिंसा के सिद्धान्त के पीछे अपना भय छिपाना चाहता था। श्रीकृष्ण इसे ताड़ गये और उसे फटकारते हुये कहा- ‘अशोचानन्व शोचस्वं प्रज्ञावादाँश्च भाससे।’
एक अत्यन्त आलसी और मूर्ख मनुष्य मुझे एक बार मिला। वह मुझे से बोला-”भाई! परमेश्वर की प्राप्ति का कोई मार्ग आप बतलावें?” मैंने उससे पूछा-”तू झूठ बोलना जानता है?” वह बोला-’नहीं’। तब मैंने उससे कहा-’तो फिर पहले तू झूठ बोलना सीख।’ क्योंकि पत्थर के सदृश्य होकर बैठने की अपेक्षा झूठ बोलना भी कोई बुरा नहीं है। बाहर से जो अत्यन्त निश्चित तेरी स्थिति देख पड़ती है, वह स्थिति उस की दशा नहीं है, किन्तु पत्थर की है। इस कारण कोई बुरे कार्य भी तेरे हाथ से नहीं होते। इसलिए पहले कुछ बुरे कार्य करना ही सीख।’
पत्थर का सा मुर्दापन किसी प्रकार उचित नहीं किन्तु वह सर्वथा त्याज्य है। यह कहना बहुत सहज है कि--”किसी का भी द्वेष न करो और बुरे का भी प्रतिकार न करो।” परन्तु इस को सिद्धान्त का कार्य रूप में परिवर्तित करना भयानक होगा। यह ध्येय अत्यंत उच्च श्रेणी का है कि अपनी रक्षा के लिए भी किसी को दुख न दिया जाय। आप सोचिये तो सही कि यदि इसी ध्येय का हम नित्य व्यवहार में आचरण करने लगें तो कितने अनर्थ उपस्थित होंगे। हमारे जान माल की भी रक्षा नहीं होगी। सम्पूर्ण समाज का संघटन बिगड़ जायगा और किसी का किसी पर नियंत्रण न रहेगा। आप एक ही दिन यदि उपर्युक्त सिद्धान्त के अनुसार आचरण करे तो चारों ओर नादिरशाही के दृश्य दिखाई देने लगेंगे। इसलिए उपर्युक्त सिद्धान्त की उच्चता को मानते हुए भी आज की सामाजिक दशा में उसको व्यावहारिक रूप देना अनिष्ट है और यदि आप कहें कि यह सिद्धान्त अच्छा है और इसलिए इसके अनुसार आचरण न करने वाले पापी है तो मैं कहता हूँ कि आपको बहुत ही थोड़े मनुष्य इस संसार में ऐसे मिलेंगे जो कि इस पाप से मुक्त होंगे। इस दृष्टि से प्रायः सम्पूर्ण मानव जाति को ही पापी कहना पड़ेगा।
किसी मनुष्य को रास्ते से चले जाने वाले एक मनुष्य ने गालियाँ दी, अब वह मनुष्य यदि गालियों को सुन कर भी चुप ही रहा, तो उसके इस कार्य में परस्पर विरुद्ध दो उद्देश्य हो सकते हैं-या तो अपने शत्रु को मोटा-ताजा देख कर भय से वह चुप रहा, अथवा यह जानते हुए भी कि एक डाँट से ही इसका मुँह बंद कर देने की शक्ति मुझ में है, केवल उसे क्षमा करने के लिए ही चुप रहा। ये दो बातें अलग-अलग है। बाह्यतः कार्य का स्वरूप एक ही है, पर उद्देश्य में जमीन-आसमान का अन्तर है। अतएव कार्य एक ही होते हुए भी उससे उत्पन्न होने वाले