ओ मेघ! बरसो!

July 1941

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(ऋषि तिरुवल्लुवर)

हे मेघ! इस पृथ्वी पर जीवधारी इसीलिए जीवित हैं कि समय पर वर्षा हो जाती है और सबको जल की शीतलता मिलती रहती है। अन्न की उत्पत्ति जल से ही होती है, और अन्न ही जीवन धन है। हे उपकारी! तुम्हारे उपकारों से ही संस्कार की व्यवस्था कायम रहती है। तुम स्वयं कष्ट उठा कर दूसरों को शीतल सहायता पहुँचाते रहते हो, इसी लिए यह विश्व जीवित है।

यदि जल न बरसे तो इस पृथ्वी पर घोर दुर्भिक्ष फैल जायगा, भले ही उसके चारों ओर समुद्र भरा हुआ है। स्वर्ग के स्रोत शुष्क हो जायेंगे और उपजना बन्द हो जायगा। संसार में सब पदार्थ मौजूद हैं, परन्तु त्यागी तपस्वियों की उदारता बिना वह मरघट जैसा भयंकर हो जायगा। त्याग और उदारता के अभाव में विश्व का सारा सौंदर्य नष्ट हो जायगा।

मेघ! जब तुम बरसते हो तो सूखी हुई खास फिर हरी हो जाती है। हे उपदेशक! तुम्हारे सदप्रयत्नों से लोगों के टूटे हुए दिल जुड़ जाते हैं, मुरझाई हुई कलियाँ हरी हो जाती हैं।

यदि संसार में फैले समुद्र अपना जल मेघ को देना बन्द कर दें या मेघ उस लिये हुए जल को फिर वापिस न लौटाते तो कितना भयंकर दृश्य उपस्थित होगा उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती, परन्तु क्या उदार महानुभाव कभी ऐसा करते हैं? वे लेते हुए दिखाई देते हैं पर देने के लिए उनका दूसरा हाथ खुला रहता है। वे इधर लेते हैं और उधर दे देते हैं। हे लोक सेवी! तुम अपने श्रम से उत्पादन करते हो, पर उस कमाई को दूसरों को ही बाँट देते हो।

मेघ! बरसों! तुम्हारे बरसने से ही सबका कल्याण है। उपकारियों! संसार की भलाई में निस्वार्थ भाव से प्रवृत्त रहो, तभी सौंदर्य कायम रहेगा। अन्यथा इस भूमंडल में पाप और स्वार्थ की अग्नि ही धधकती रहेगी। दया और सेवा के कहीं दर्शन नहीं होंगे। इस लिये हे उपकारी मेघ! बरसों और निरंतर बरसते रहो।


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