अपने पैर में जूता पहनो

July 1941

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एक व्यक्ति बड़ा भावुक था। उसके मन पर बाहर की घटनाओं का बड़ा प्रभाव पड़ता और वह संसार के उद्धार के सम्बन्ध में बहुत कुछ सोचता रहता। एक दिन उसे कहीं दूर देश की यात्रा पर जाना पड़ा। जिस रास्ते वह गया था, वह बड़ा ही कठिन और कष्टप्रद निकला। चारों ओर उसमें कंटीली झाड़ियाँ उगी हुई थीं और उनके काँटे गिर-गिर कर सारी भूमि पर फैल गये थे, जिससे उस रास्ते से निकलना बड़ा कठिन था। सुखपूर्वक यात्रा करने वालों के पैर उस रास्ते के कुश-कंटकों से घायल हो जाते। उसे स्वयं भी जब उसी रास्ते हो कर जाना पड़ा तो उसके भावुक हृदय को बड़ा दुख हुआ।

वह सोचने लगा यदि इस जंगल की सारी भूमि चमड़े से ढक दी जाये तो कैसा अच्छा हो? फिर कहीं कुश-कंटक न रहेंगे और मार्ग सुगम हो जायगा। इस कल्पना में प्रसन्न होता हुआ वह जा रहा था, कि रास्ते में उसकी अपने एक अनुभवी मित्र से भेंट हुई। मित्र को देख कर वह बहुत प्रसन्न हुआ और अपनी योजना उसे समझाते हुए पूछा कि चमड़े से सारी भूमि को ढक कर कुश-कंटकों से रहित बना देना कितना उत्तम होगा?

मित्र उसकी बात सुन कर हँसा और प्रेम पूर्वक कहा-मेरे प्यारे भाई! तुम्हारा विचार बहुत ही सुन्दर और सहृदयतापूर्ण है, परन्तु यह काल्पनिक है, व्यावहारिक नहीं। तुम सारी पृथ्वी के कर्ता नहीं हो और सारी कठिनाइयों को उठा देना तुम्हारी शक्ति से बाहर है। तुम अपने पैरों में जूते पहनो और कुश-कंटकों को कुचलते हुए आगे बढ़ो। इसी प्रकार यदि दूसरों के लिए सुख का मार्ग तैयार करना चाहते हो, तो उन्हें भी जूता पहनने के लिये कहो। इस तरह कठिन मार्ग सरल हो जायगा।

संसार में बहुत सी बुराइयाँ हैं। अनेक सहृदय और भावुक सज्जन चाहते हैं कि संसार बिलकुल विशुद्ध और पवित्र बन जाए। यह नहीं हो सकता। राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा, मुहम्मद आदि सब ने प्रयत्न किया, पर संसार जहाँ का तहाँ है। इसमें बुराइयाँ और भलाइयाँ दोनों ही रहेंगी। उपकारी मनुष्य दूसरों की सबसे बड़ी भलाई यह कर सकते हैं, संसार के कष्टों का निवारण इस प्रकार कर सकते हैं कि स्वयं भले बनें और दूसरों को भले बनाने का प्रयत्न करें। यदि हम स्वयं भले बन जायं, अपनी बुराइयों को शुद्ध कर डालें तो संसार की बहुत सी बुराइयाँ दूर हो सकती हैं। किन्तु यदि हम उस भावुक व्यक्ति की भाँति स्वयं तो नंगे पैर यात्रा करें और भूमि को चमड़े से ढक देने की बात सोचें, तो वह केवल कल्पना-जगत में विचरण करना होगा। उत्तम यह है कि हम पहले आत्म-सुधार करें, अपने को बुराइयों से रहित बनाए और दूसरों को वैसा ही बनाने का प्रयत्न करें, इस प्रकार हम संसार की सर्वोत्तम सेवा कर सकेंगे।


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