तपस्या और सत्संग

July 1941

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वशिष्ठ और विश्वामित्र की पुरानी शत्रुता अब दूर हो चुकी थी। उदार हृदय के मनुष्यों का मन-मुटाव ऐसा नहीं होता जो कभी मिट ही न सके। दुष्ट लोग द्वेष की गाँठ पेट में धरे रहते हैं, पर उदार मनुष्य जब एक बार समझौता हो गया तो पुराने द्वेष को निकाल देते हैं।

दोष विश्वामित्र का ही था। इसलिये उन्होंने वशिष्ठ जी को अधिक संतुष्ट करने के लिये अपने आश्रम में बुलाया और बड़े आदर-सत्कार के साथ बहुत दिनों तक अपने यहाँ रखा और उन्हें विशेष प्रसन्न करने की भरसक चेष्टा करते रहे। जब वशिष्ठ वापिस अपने घर को चलने लगे तो विश्वामित्र ने अपनी एक हजार वर्ष की तपस्या का फल उन्हें भेट-स्वरूप दे दिया।

कुछ दिनों बाद वशिष्ठ ने विश्वामित्र को अपने यहाँ बुलाया और उनकी वैसी ही आवभगत की। जब विश्वामित्र चलने लगे तो वशिष्ठ ने एक घड़ी के सत्संग का फल उन्हें भेंट कर दिया।

विश्वमित्र को यह बात अच्छी न लगी कि वशिष्ठ केवल एक घड़ी का सत्संग मात्र उन्हें भेंट करें जब कि उन्हें दस हजार वर्ष की तपस्या भेंट की गई थी। वशिष्ठ ने उनके मनोभाव ताड़ लिये और उनका संदेह निवारण करने के लिए पाताल लोक चल दिये। उन्होंने विश्वामित्र को भी अपने साथ ले लिया।

दोनों महर्षियों को अपने यहाँ आया हुआ देख कर पाताल पुरी के राजा शेषनाग ने उनका यथोचित सत्कार किया। कुशल समाचार पूछने के बाद शेष जी ने कहा-कहिए भगवन्! मेरे लिये क्या आज्ञा है। विश्वामित्र तो चुप बैठे हुये थे, पर वशिष्ठ जी ने कहा - राजन्! हम आपसे यह निर्णय कराने आये हैं, कि दस हजार वर्ष की तपस्या और एक घड़ी का सत्संग इन दोनों में से किसका मूल्य अधिक है?

शेष जी चतुर थे, वे भी सारा मामला ताड़ गये। उन्होंने कहा-आप में से जिसके पास दस हजार वर्ष की तपस्या का फल है वह उस बल के द्वारा एक घड़ी मेरा भार उठावे। वशिष्ठ जी ने विश्वामित्र की दी हुई तपस्या का जोर लगाया, पर वे शेष जी का भार जरा भी न उठा सके। अब उन्होंने विश्वामित्र को बुलाया और एक घड़ी के सत्संग के बल से पृथ्वी उठाने को कहा। विश्वामित्र ने उस बल का प्रयोग किया तो उठ गया।

शेष जी ने उन्हें समझाया कि सत्संग मूल है और तपस्या पत्त। सत्संग से मनुष्य की जीवन दिशा का परिवर्तन होता है और तप के प्रयत्न से पुष्टि मिलती है। यदि बुरे संग से जीवन दिशा पतन की ओर चल पड़े तो तपस्या से उस पतन में ही तेजी आवेगी। इसलिये सत्संग का महत्व सबसे अधिक है। श्रेष्ठ पुरुषों के पास बैठने, उनके वचन सुनने, दर्शन करने एवं सदग्रन्थों के पठन-पाठन से जितना लाभ होता है उतना लाभ संसार में और किसी साधन से नहीं होता।


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