‘बलमुपास्व’

December 1941

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

श्रुति कहती है कि बल की उपासना करो, क्योंकि निर्बलों का जगत में कहीं ठिकाना नहीं। विश्व में अमित ऐश्वर्य भरा हुआ है, पर उनके भोगने का अधिकार केवल बलवानों को ही है। मनुष्य सुख की इच्छा करते हैं, परन्तु वे नहीं जानते कि बिलकुल समीप होने पर भी निर्बल व्यक्ति सुख सामग्री को भोग नहीं सकता। सुख एक साझेदारी का सौदा है, जिसे हम बल की सहायता से भोगते हैं। न तो केवल वस्तुओं में सुख है और न केवल इच्छा में। उदाहरण लीजिये -सुस्वाद भोजन सामने तैयार है और खाने की आपकी इच्छा भी है, पर आमाशय निर्बल है, मुख का स्वाद कडुआ रहता है। एक ग्रास खाते ही पेट मना करता है और मितली आती है। ऐसी दशा में वह सुस्वाद भोजन व्यर्थ है। एक व्यक्ति में बुद्धिबल है, वह धन को ठीक प्रकार कमाता और खर्च करता है। तदनुसार सुखी रहता है, किन्तु दूसरा मनुष्य कंजूस या फिजूल खर्ची है तो इस बौद्धिक निर्बलता के कारण धन रहते हुए भी उसका सुख न भोग सकेगा। ब्रह्मचर्य पर धर्मशास्त्रों में बहुत अधिक जोर इसलिये दिया गया है कि इससे बल की पूँजी जमा होती है। जो ब्रह्मचर्य पालना स्वयं कुछ सुखप्रद बात प्रतीत न हो, पर यह निश्चय है कि उस सण्लय द्वारा ही नाना प्रकार के भोगों को भोगने की शक्ति स्थिर रहती है। बालक को अन्न-प्राशन संस्कार के अन्त में आशीर्वाद दिया जाता है कि तू ‘अन्नपति’ और ‘अन्नाद’ हो। केवल अन्नपति होने से काम नहीं चलेगा, यदि वह अन्नाद (खाकर पचाने वाला) भी न हो।

आपके पास उत्तम इन्द्रियाँ हैं, पर बल नहीं है तो शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श के उत्तमोत्तम साधन होने पर भी बेकार हैं। किन्तु यदि शरीर में बल है तो साधारण साधन भी पर्याप्त आनन्ददायक होंगे। सद्ग्रन्थों में गुह्यज्ञान छिपा पड़ा है, पर यदि पढ़ने की योग्यता नहीं है तो वह हमें कुछ भी लाभ नहीं पहुँचा सकता। घोड़े की सवारी बहुत अच्छी है, पर बीमारी के लिये तो हाथ-पैर तोड़ देने का ही एक निमित्त है। लोग समझते हैं कि हमें अमुक वस्तु प्राप्त होती तो बहुत सुख होता, परन्तु देखा गया है कि जिन दुर्बलात्माओं के पास वे वस्तुएं हैं, वे उनसे सुख नहीं, दुख पाते। कंजूस को उसका धन डकैत, कत्ल आदि का ही भय उपस्थित करता है। नपुंसक को सुन्दर स्त्री कुढ़ाती ही है। हिन्दुओं को जुलूस, बाजा आदि साधारण नागरिक अधिकारों का उपयोग करने में भी आहत होना पड़ता है। इसका कारण और कुछ नहीं, निर्बलता है। जब आप बलवान हो जायेंगे तो पड़ौसी आपको अनुचित रीति से दबाना छोड़ देंगे और खुद दोस्ती के लिये हाथ बढ़ावेंगे। प्रार्थना करना, समझाना, न्याय की दुहाई देना, यह कहने सुनने की चीज हैं, व्यवहार की नहीं। व्यवहार में बल ही एक मात्र उपाय है जिससे हम सुखपूर्वक जीवन यापन कर सकते हैं। इसीलिये श्रुति ने बड़े उच्च शब्दों में आदेश किया है कि- ‘बलमुपास्व’।

निर्बलता पाप है। पाप का ही दूसरा नाम दुख है। यदि आप कोई दुख भोग रहे हों तो समझिये कि उसके साथ निर्बलता अवश्य बंधी हुई होगी। शरीर की कमजोरी से रोग घेरते हैं, संगठन की कमजोरी से बाहरी आक्रमण होते हैं, मानसिक कमज़ोरी से मानसिक वेदनाएँ होती हैं, इसी प्रकार आध्यात्मिक कमज़ोरी से नारकीय यन्त्रणाएँ सहनी पड़ती हैं। निर्बल सदा पराश्रित रहेंगे और पराश्रितों को विपत्तियाँ ही सतावेंगी। आप अपने जीवन को सुखी बनाना चाहते हैं तो किसी दूसरे की सहायता की आशा मत कीजिये और न शेखचिल्ली की तरह अप्राप्य वस्तुओं में मन डुलाइये। आप तो अपनी योग्यता बढ़ाइये, शक्ति संचय कीजिये, बलवान बनिये तभी इष्ट उद्देश्यों को प्राप्त कर सकेंगे।

स्मरण रखिए पुरुष सिंहों के लिए श्रुति का एक ही महत्वपूर्ण आदेश है -’बलमुपास्व’ अर्थात् बल की उपासना करो।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118