परलोक विद्या के प्रचार की कठिनाइयाँ

December 1941

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(ले. परलोक विद्या के आचार्य श्री. डी ऋषि, बम्बई)

मरणोत्तर अवस्था का ज्ञान महत्वपूर्ण होते हुए भी उसके प्रचार में कई प्रकार की कठिनाइयों का अनुभव आता है। अन्य बातों के प्रचार-कार्य में और इसमें यह विशेषता रहती है कि लोग हमेशा इस विषय में प्रत्यक्ष प्रमाण अथवा प्रयोगों की अपेक्षा करते हैं। उन्हें यह खबर नहीं रहती कि परलोकगत व्यक्तियों से संवाद शक्य है किन्तु टेलीफोन के अनुसार वह सहज नहीं है, यदि ऐसा होता तो उसके प्रचार की कोई आवश्यकता नहीं होती। विरह अथवा अन्य जिज्ञासु अपने संतोष के लिये इस स्थान की अपेक्षा करते हैं किन्तु उन्हें परलोक विद्या के तत्वों का तथा प्रयोगों की कठिनाइयों का परिचय नहीं रहता, इस अवस्था में उनके साथ करना प्रयोग दुर्घट होता है।

प्रायः प्रचारकों से प्रयोगों की भी अपेक्षा की जाती है। साधारण लोगों का यह ख्याल रहता है कि प्रचारक को प्रयोग भी करके अपने वचनों की अथवा अनुभवों की सत्यता सिद्ध करनी चाहिये। उनको यदि विदित नहीं रहता कि प्रचारक माध्यामिक शक्ति युक्त हो तो ही उससे यह कार्य हो सकेगा, सुविख्यात सर आर्थर कोनन डाईल सरआँ लिहर लाज आदि विद्वान स्वयं माध्यम नहीं थे, तो भी उन महानुभावों ने इस विद्या का प्रसार समस्त संसार में किया। जहाँ वे गये वहाँ लोगों ने उन से प्रयोगों की अपेक्षा नहीं की उन्होंने अपने अनुभव लोगों को बतलाये, इसके तत्व तथा उपयुक्तता समझा दी जिससे परलोक विद्या की तरफ जनता का ध्यान आकर्षित हुआ, किन्तु हमारे देश में भिन्न प्रकार के अनुभव आते हैं। उपर्युक्त सज्जनों के उदाहरण से लोगों के प्रचारकों के कार्य की कल्पना आ सकेगी।

यह भी देखा गया है कि कई प्रसिद्ध लोग परलोक ज्ञान का पूरा अनुभव आने पर भी उन्हें प्रसार करने को तैयार नहीं होते। यह विद्या अभी तक लोक सम्मत न होने से वे अपने अनुभव सार्वजनिक रीति से प्रकट करने में हिचकिचाते हैं। स्वयं लाभ उठाकर दूसरे को उसका कुछ भी अंश न देना यह स्वार्थता है। इसलिये हर एक परलोक विद्या प्रेमी का यह परम पवित्र कर्त्तव्य है कि वह अपने अनुभव लोगों को कहे और इस ज्ञान का प्रसार करे इसी से ही यह ज्ञान सर्वसम्मत होगा।

इसके अलावा द्रव्यैक दृष्टि से अपने को महान् ‘सायकिक’ या ‘स्पिरिच्युअलिस्ट’ ऐसा कहकर वर्तमान पत्रों से प्रकाशित करके लोगों का चित्त आकर्षित करते हैं, इन ‘सायकिक’ ब्रुच लोगों के हेतु इस विद्या का प्रसार करना नहीं होता, वे स्वयं इस ज्ञान को भी यथार्थतः नहीं जानते, केवल द्रव्य सम्पादन करना यही उनका उद्देश्य रहता है, और लोग बड़े-बड़े इश्तहारों से वंचित होकर इस ज्ञान को ही ढोंग बाजी समझते हैं, सत्य अनुभव देने पर द्रव्य की अपेक्षा करना कोई भी अनुचित नहीं कहेगा, हर एक मनुष्य को अपने समय और कष्ट का बदला मिलना चाहिये किन्तु केवल इश्तहार देकर द्रव्य संपादन करने की लालसा करना सर्वथा अनुचित है।

परलोक का अस्तित्व सब धर्मों को आवश्यक तथा पोषक होकर भी धर्म प्रवीण लोग इस विद्या को भूत विद्या संबोधित करके इससे अलग रहते हैं, इसी मुताबिक वैज्ञानिक भौतिक शास्त्र के समान अन्वेषण करके अपने अनुभवों का लाभ जनता को नहीं देना चाहते हैं, इस कारण से इस विद्या का प्रसार होने से कठिनाई पड़ती है।

कई लोग केवल स्वार्थ बुद्धि से ही यह प्रयोग देखना अथवा करना चाहते हैं। उनको इस विद्या का अन्तिम ध्येय तथा महत्व की कल्पना भी नहीं रहती और वे उसे जानना नहीं चाहते, ऐसे लोगों से प्रचार कार्य की अपेक्षा करना व्यर्थ है। अपना स्वार्थ पूर्ण होने पर वे इस ज्ञान का विचार भी नहीं करते हैं और न उनमें उस प्रकार की शक्ति तथा बुद्धि रहती हैं, इसी प्रकार के लोगों की बहुत संख्या होने से प्रयोग कर्त्ताओं को उनके सन्तोष के लिये ही प्रयोग करने पड़ते हैं।

उपर्युक्त विवेचन से इस विषय की कुछ कठिनाइयों की कल्पना पाठकों को देकर वे उन्हें दूर करने से यथा शक्ति दत्त चित्त-होंगे ऐसी आशा है।


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