इस अंक के साथ अखंड ज्योति का दूसरा वर्ष समाप्त हो जाता है और आगामी मास 20 जनवरी को ‘सतयुग अंक’ भेंट करते हुए तीसरे वर्ष में पदार्पण होता है। इन पिछले दो वर्षों के ऊपर दृष्टिपात करते हुए हृदय आनन्द से पुलकित हो जाता है। ईश्वर की जिस महान प्रेरणा को शिरोचार्य करके हमने बिना अपनी योग्यता और स्थिति का ख्याल किए हुए, इस पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया था, उस समय हमारे कई माननीय मित्रों ने कहा था-इस समय तो अखबारों के बन्द होने का समय है, आप नया पत्र आरम्भ कर रहे हैं, सो भी ऐसे विषय का जिसमें इस बीसवीं शताब्दी को कोई रुचि नहीं है। व्यावहारिक दृष्टि से उनका कथन बिलकुल सत्य था। लड़ाई के कारण कागज़ पर असाधारण महँगाई आने की उस समय भी आशंका थी। पाँच गुनी कीमत हो जाने का अन्दाज नहीं था, पर इतना तो जानते थे कि कुछ मँहगाई जरूर आयेगी, सामयिक परिवर्तन के एक जानकार और एक प्रमुख पत्र के सम्पादक ने हमसे कहा था कि ‘आपको अपनी पूँजी से हाथ धोकर बैठना पड़ेगा। ऐसी पत्रिकाएं इस जमाने में नहीं चल सकतीं।’ तर्कों की दृष्टि से हमारे पास इस बहुमूल्य सम्मतियों के विरुद्ध कुछ कहने को न था। हम अपनी अयोग्यताओं को भी जानते थे। इस पर भी हटात् ‘अखण्ड ज्योति’ निकाल ही दी। तर्कें कहती थीं कि - ‘ठहरो।’ प्रेरक कहता था कि - ‘निमित्त मात्र भव सव्यसाचिन्’ हे अर्जुन, तू तो निमित्त मात्र बन जा। करने वाला तू नहीं मैं हुँ।’ हृदय में कोई बैठा हुआ गुनगुना रहा था कि -’मुझे कुछ नवीन प्रेरणा संसार के लिये करनी है, तुझे उसका निमित्त बनना है। हमने अबोध बालक की तरह माता के अंचल में मुँह छिपा लिया और कहा -’मालिक तेरी रजा रहे, और तू ही तू रहे।’ प्रभो! आपकी इच्छा पूर्ण हो, हमारा अपना कुछ नहीं, आपकी वस्तु आपके काम आवे यह स्वीकार करने में हमें कुछ भी आनाकानी नहीं है।
“निराशा, अन्धकार, भ्रम जंजाल के बीहड़ वन में भटकने वाले प्राणियों को पहले प्रकाश और पथ प्रदर्शन की आवश्यकता है। वर्तमान समाज को आज ज्ञान और कर्म की आवश्यकता है, सदाचार, आत्म विश्वास, उत्साह और कर्तव्य-परायणता द्वारा आज की जटिल स्थिति में से मनुष्य जाति का उद्धार होगा। ईश्वर भक्ति, सर्वोत्तम महान तप साधना है, पर बीमारों को मोहन भोग नहीं, मूँग की दाल का पानी देना है। तृषातुर को पहले पानी पिलाना है, पीछे ज्ञानोपदेश करना है। पहले ज्ञानोपदेश और पीछे पानी पिलाने की व्यवस्था होगी, तो कुछ ठीक परिणाम न निकलेगा। इस समय हमारा समाज बहुत भटक गया है। पिता अपने पुत्रों को सुखी और स्वाधीन देखना चाहता है, उन्हें बहुत कुछ देना चाहता है, पर लेने वालों की दशा ही विचित्र हो गई है। उनमें ऐसे बड़े छेद हो गये हैं कि दी गई वस्तु ठहरती ही नहीं। इन पात्रों को भरने के लिए पहले छेद बन्द करने होंगे। ईश्वर से अधिक माँगना-यह उचित मार्ग नहीं है, क्योंकि वह तो अपने पुत्रों को अधिक से अधिक देने के लिए स्वयं आतुर हो रहा है, फूटे छेद वाले पात्रों में वह अपनी महती कृपा को डालता है, पर सब निष्फल हो जाता है। इस लिए जगत् पिता की इच्छा है कि पहले इन छिद्रों को बन्द किया जाये। यह छिद्र हैं -’मानव जाति के दुर्गुण।’ निराशा, अनुत्साह, आलस्य को अपना कर हमने शैतानी पंजा अपने सिर पर रखवाया है, जिस प्रकार दुखद स्थिति हमारे निमंत्रण पर आई है, उसी प्रकार सुखद परिस्थिति भी हमारी इच्छानुसार ही आवेगी। नमक माँगने पर माता ने नमक दिया है, जब मिठाई की इच्छा होगी, तो वह उदारतापूर्वक मधुर मिष्ठान्नों का भरा थाल भी हमें परोस देगी। इसके लिये हमारी अपनी इच्छा की आवश्यकता है। उत्साह, जागृति, स्फूर्ति, विवेक, वैराग्य को जब हम अपनावेंगे तो नटनागर मुरली की मधुर ध्वनि से इस पुण्य भूमि को निनादित करते हुए, भूभार हरने के लिये पूर्व से ही अपनी सुनहरी किरणें वितरित करते हुए उदय होंगे।”
वर्तमान युग की यह वाणी, कर्म और ज्ञान का संदेश, मृत समाज के कानों में सुनाने के लिए यह अखण्ड ज्योति-छोटी सी अग्रदूती प्रकट हुई थी। इन दो वर्षों के इसकी सफलता पर दृष्टिपात करते हुए अब हमें पूरा पूरा विश्वास हो गया है कि हमारे अन्तःकरण की गुनगुनाहट कोई भ्रम नहीं था, वरन् निश्चित रूप से प्रभु का निर्देश था। इस थोड़े समय में, इस छोटी सी शक्ति द्वारा प्रभु ने जितना काम कराया, वह हमें तो एक चमत्कार की तरह प्रतीत होता है। जितनी अधिक संख्या में इसके पाठक हैं, उसे देखते हुए एक विद्वान ने कहा था कि भारत के समस्त धार्मिक पत्रों में ‘कल्याण’ के बाद ‘अखण्ड ज्योति’ का ही दूसरा नम्बर है। हमारे पास न तो प्रचार के साधन हैं, न पैसा, योग्यता, न सहायक, न कर्मचारी। एक छोटे से आठ दस रुपये किराये के कमरे में रखे हुए कार्यालय में एक व्यक्ति द्वारा इतना कार्य कैसे होता है? यह ईश्वर ही जाने। भारतवर्ष के एक कौने से दूसरे कौने तक, समुद्र पार अनेक देशों में, अखण्ड ज्योति की पहुँच कैसे हुई? इसका संदेश इतनी दूर-दूर कैसे पहुँचा? ऐसे कृपालु और सहयोगियों की संख्या इतनी तेजी से कौन बढ़ा रहा हैं? लेखों को दिन-दिन इतना अधिक गंभीर ज्ञानमय कौन बनाता जा रहा है? इन प्रश्नों का हमारे पास कोई उत्तर नहीं है, क्योंकि इस नटनागर की पुण्य भूमि मथुरा नगरी में एक अदृश्य सत्ता के अतिरिक्त और कोई अपना सहायक दिखाई नहीं पड़ता। आध्यात्मिक जिज्ञासाओं से भरी हुई तीस तीस चिट्ठियों का विस्तृत और संतोषजनक उत्तर प्रतिदिन कौन लिखता है? हमें यह कहने का साहस नहीं होता कि ‘हमारे हाथ’ क्योंकि इतने अक्षर तो ये तीन दिन में भी नहीं लिख सकते थे। अखण्ड ज्योति की पाठक सामग्री, पुस्तकों का रचना कार्य, पत्र व्यवहार, यह हमारा सब कार्य एक दिन एक धुरंधर साहित्यिक ने यहाँ आकर देखा था और हिसाब लगा कर बताया था कि इतना कार्य कम से कम पाँच आदमी मिलकर ही कर सकते हैं। जितना यह प्रयत्न हो रहा है, उसके परिमाण से हजारों गुनी अधिक उद्देश्य पूर्ति हो रही है। हमारी आँखों ने देखा है कि हजारों व्यक्तियों की जीवन दिशा में इस प्रयत्न से आमूल चूल परिवर्तन हो गया है और लाखों करोड़ों के हृदयों में ‘अखण्ड ज्योति’ द्वारा प्रचारित कराई गई ईश्वरीय भावनाएं हाहाकारी स्पंदन कर रही हैं। अगणित ‘आत्माएं’ इन प्रश्नों की ओर आकर्षित हुई हैं कि हम क्या हैं? क्यों आये हैं? क्या कर्तव्य हैं? क्या कर रहे हैं? और क्या करना चाहिए? आने वाला सत्युग आकाश में घुमड़ रहा है, अखण्ड ज्योति उसकी एक गड़गड़ाहट मात्र है।
बेशक ‘ज्योति’ हम पृष्ठ नहीं बढ़ा सके, अधिक सुन्दर इसे नहीं बना सके, रंग बिरंगे चित्रों से इसे न सजा सके, मोटे मोटे विशेषाँक न निकाल सके क्यों नहीं? इसका कारण भी हम नहीं जानते पतिव्रता स्त्री इतना ही कर सकती है कि उसके स्वामी जो कुछ साग सत्तू लाकर घर में रख दे उसकी प्रेम पूर्वक रसोई बना दे। पाठक स्वयं ही विचारे कि हम अपनी नगन्य योग्यताओं अनुसार और क्या कर सकते हैं? प्रभु या तो इसे छोटी-ऐसी ही रखना चाहते होंगे, या क्रमशः हमारे कन्धों को मज़बूत करने और अधिक बोझ रखने की इच्छा करते होंगे। जो हो, हमें कुछ आपत्ति नहीं। हमने अपने को उन्हें सुपुर्द कर दिया है जो करावेंगे वह करते चलेंगे। जब वे और अधिक जन-समूह के हृदयों में इसे अपनाने की प्रेरणा करेंगे और जिन्हें अमानत स्वरूप धन दे रखा है उनको आज्ञा देकर अर्थव्यवस्था करावेंगे तो यह और अधिक सुन्दर बन जायेगी। इस उलझन में हम क्यों पड़े? जाने, उनका काम जाने।
इस गला घोंट अर्थ संकट के समय में जब कि अखबारों की मृत्यु संख्या दिन-दिन बढ़ती जा रही है और कितने ही मृत्यु शय्या पर पड़े हुए अन्तिम सांसें ले रहे हैं। अखंड-ज्योति सब प्रकार की चिन्ताओं से मुक्त है। क्योंकि उसे अपने प्रेरक पर विश्वास है। अभी इसी मास की ही एक छोटी सी घटना सुनिये-प्रेस का बहुत बड़ा बिल चुकाने को सामने पड़ा था। दिसम्बर महीने के लिये कागज़ नहीं था, छपाई की सामग्री हर महीने पहले महीने से अधिक बढ़ जाती है। इस पर भी ‘सतयुग‘-अंक निकालने की बड़ी प्रबल प्रेरणा उठ रही थी। आँखों के सामने अँधेरा था, चिन्ता में बैठ-बैठे पूरा दिन व्यतीत हो गया। भोजन की भी इच्छा न हुई। कई मित्र आ गये, खिन्नता का कारण पूछने लगे उन्हें बनावटी हँसी हँसकर टाल दिया गया। दूसरे दिन काँपते हाथों ने काम आरम्भ किया पर मनमें कुछ नई स्फूर्ति आ रही थी मानो कोई कह रहा हो कि -’हे निमित्त! अपने को कर्ता मत मान। जिसका काम है वह स्वयं चिन्ता कर रहा है।” दोपहर को सतयुग अंक के संपादक पं.ऋषि राम जी शुक्ल का 101) का मनीआर्डर सहायतार्थ बिना किसी पूर्व सूचना के आ गया। इसी प्रकार अफ्रीका से एक 20 शिलिंग का चैक बिना दया याचना के आ पहुँचा, चिन्ता का प्रश्न बहुत अंशों में उसी दिन हल हो गया। सब व्यवस्था यथा विधि चलने लगी। विभिन्न प्रकार की ऐसी घटनाएं नित्य घटित होती रहती हैं जिनसे प्रतीत होता है कि अखण्ड-ज्योति का अपना कोई विशेष मिशन नहीं हैं। यह तो एक अदृश्य प्रेरणा की हुंकार मात्र है।
गत वर्ष हमने एक वर्ष की सफलता पर पाठकों को कृपा के लिये उन्हें धन्यवाद दिया था और इसकी आर्थिक सहायता की अपील की थी। इस वर्ष भी स्थूल दृष्टि से उन दोनों बातों को दुहराने की आवश्यकता प्रतीत होती है। परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर इसका कुछ महत्व प्रतीत नहीं होता क्योंकि जो पाठक निस्वार्थ भाव से अखण्ड-ज्योति पर इतना हार्दिक प्रेम प्रकट कर रहे हैं, उसका कारण हम या ‘ज्योति’ नहीं वरन् ईश्वरीय सत्ता है। अनेक अपरिचित मित्रों का सच्चा सौहार्द, पवित्र प्रेम गुरुजनों का वात्सल्य हमारी योग्यता के आधार पर नहीं प्रभु की प्रेरक शक्ति द्वारा प्राप्त हो रहा है। अपनी पुण्य नगरी में बुलाकर जिन लीला धर भगवान् ने इस महान प्रचार का साधन निर्मित किया है उन्हीं नन्दकिशोर की वीणा हमारे कानों में झनझना रही है। देखिए वे कह रहे हैं - “वत्स! चिन्ता मत करो? अपने सन्देश का विश्व-व्यापी प्रचार करने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर है। तुम तो निमित्त मात्र हो। मैं अखण्ड-ज्योति के अधिक पाठक बढ़ाने की अपने भक्तजनों के हृदयों में स्वयं प्रेरणा कर रहा हूँ। इसकी उन्नति करने के लिये मेरी माया यथाविधि काम कर रही है।
इसलिये इन क्षेत्रों में हम धन्यवाद का कोरा दम्भ न दिखाकर पाठकों की ईश्वर प्रेरित सात्विक आत्म चेतना को श्रद्धा से नत-मस्तक होकर प्रणाम करते हुए, इन पंक्तियों को समाप्त करते हैं और आशा करते है कि अखण्ड-ज्योति का ज्ञान यज्ञ सत्य के अन्वेषकों के हृदयों में एक नवीन स्फूर्ति प्रदान करेगा, जिसके आधार पर वे समुचित शाँति प्राप्त कर सकेंगे। परमात्मन्, आपकी इच्छा पूर्ण हो।