त्याग और प्रेम का महत्व

December 1941

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(श्री जगन्नाथ राव नायडू, नागपुर)

एक राजा अपने मंत्री पर पूर्ण विश्वास रखता था। परन्तु वह मन्त्री ऐसा विश्वासघाती था कि राजा के प्रति अपने धर्म को छोड़ कर दूसरे लोगों से मिल जाता और राजा की आँखों में धूलि झोंक कर अन्य लोगों से धन ले आता और मौज करता। अपने धर्म-कर्म का उसे ध्यान न रहा और स्वार्थ लिप्सा में फँस गया।

राजा को कुछ सन्देह हुआ तो उसने मन्त्री से पूछा कि तुम्हें राज्य दरबार से जितने रुपये मिलते हैं उससे अधिक खर्च किस प्रकार करते हो? तो वह कह देता मेरे रिश्तेदारों के यहाँ से कुछ भेंट पूजा प्राप्त हो जाती है। उस समय राजा चुप हो गया पर वास्तविकता का पता लगाने का प्रयत्न करता रहा। जब उसने यह विश्वास कर लिया कि मन्त्री अपने स्वामी के सथा विश्वासघात करके अनीतिपूर्वक धन प्राप्त करता है, तो उसे बड़ा दुःख हुआ।

मन्त्री का सुधार करने की इच्छा से राजा ने कुछ दण्ड दिया। परन्तु वह मूर्ख भला कब मानने वाला था। उसने दण्ड से सुधरने की बजाय बदला देने का निश्चय किया और तरह-तरह से राजा को बदनाम करने लगा। मन्त्री सोचता था कि मेरे दूषित कर्मों का भंडाफोड़ होगा तो मुझे दण्ड मिलेगा, इसलिए क्यों नहीं राजा से पहले ही बदला ले लूँ और इसे सब लोगों की निगाह में गिरा कर अशक्त कर दूँ।

परिस्थिति बड़ी विषम हो गई। राजा की इच्छा मंत्री को सुधारने की थी, वह नहीं चाहता था कि ये दुख भोगे, और दर-दर मारा फिरे। वह चाहता था कि यह अब भी सुधर जाये और अपने गौरव को पूर्ववत् बनाये रहे। किन्तु मन्त्री तो विषधर सर्प की तरह उलटी ही चाल चल रहा था। दोनों के मन, दिन-दिन अधिक फटते जाते थे। आशन्ति और कलह का वेग प्रचण्ड होता जा रहा था। एक बना हुआ राज्य शासन नष्ट होने के लिए चौराहे पर खड़ा था। राजा और मन्त्री की पूर्व घनिष्ठता इतनी अधिक थी कि एक के अलग हो जाने पर राज्य की सुन्दर वाटिका बिलकुल ही नष्ट भ्रष्ट हो जाती।

राजगुरु को पता चला कि मेरा शिष्य अमुक राजा का राज्य गृह कलह के कारण नष्ट करना चाहता है। उन्होंने योग-दृष्टि से सारी घटना का सूक्ष्म निरीक्षण किया और प्रण किया कि इस भयंकर बरबादी को रोकूँगा। गुरु समझते थे कि झगड़ा दोनों की भूल से होता है, यदि एक पक्ष को भी सुधार दिया जाये तो कलह उसी दिन समाप्त हो सकता है। एक हाथ से ताली कहीं भी बजती नहीं देखी गई।

गुरु जी राजा के पास पहुँचे। वे जानते थे कि अपराध मन्त्री का है राजा निर्दोष है, फिर भी उन्हें शास्त्रज्ञान से यह अनुभव था कि बुद्धिमान को ही झुकाया जा सकता है। उन्होंने राजा को समझाया कि दण्ड देने की नीति बाहर के नौकर-चाकरों पर चलनी चाहिए। मन्त्री से कलह होने में हर प्रकार आपकी ही हानि है। यदि इस राज्य व्यवस्था को सुरक्षित रखना है, तो आपको ही अधिक त्याग करना पड़ेगा।

राजा बड़ा सुशील और साधुवृत्ति का था। उसने गुरु की आज्ञा मान कर अधिकाधिक त्याग का आदर्श स्वीकार कर लिया। उसने राज का सारा भार मन्त्री को सौंप दिया, अपना सारा विरोध छोड़ दिया, उसके दुष्ट आचरणों पर दृष्टि रखना छोड़ दिया, यहाँ तक कि मन में से घृणा और विरोध के भाव भी निकाल दिये। राजा ने सोच लिया कि हर प्राणी अपने कर्म का स्वतंत्र रूप से जिम्मेदार है, मन्त्री कुकर्म करता है तो मैं क्यों अपना जी जलाऊ। राजा पहले ही बड़ा नम्र था, इन त्याग भावनाओं के स्वीकार करते ही वह ओर भी अधिक नम्र बन गया। पहले उसे मोह था, अब प्रेम को सीख लिया। प्रेम की अमृतमयी गंगा उसके मन, कर्म और वचन में से कल कल करती हुई झरने लगी। निःस्वार्थ प्रेम में बड़ी ही गजब की आकर्षण शक्ति है। मन्त्री इस दिव्य तेज के आगे ठहर न सका और पिघल कर पानी-पानी हो गया। दूसरे नौकर-चाकर जो अपनी घात लगाया करते थे, अपना दुःस्वभाव भूल गये। मन्त्री की दुष्ट वृत्तियाँ मरी नहीं थी, पर एक ओर से लड़ाई भी नहीं हो सकती। सारा मामला शान्त हो गया। नष्ट होने वाला राज्य बच गया और उजड़ने वाली फुलवारी ज्यों की त्यों रह गई।

गुरु जी प्रसन्नता पूर्व विदा हो रहे थे। विदाई के समय बहुत भीड़ उनके साथ थी। लोगों ने पूछा महाराज ऐसे ही कलह जब हमारे घरों में हो तो हमें क्या करना चाहिए? गुरु जी ने सब को उपदेश दिया कि-पुत्रों! त्याग और प्रेम का महत्व समझो। इन दो तत्वों के अन्दर बड़ी से बड़ी कठिनाइयों को जरा सी देर में हल करने की अद्भुत शक्ति भरी हुई है।


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