-दुःख और दुर्बलता अज्ञानजनित विकार हैं। ये व्यापक और नित्य-तत्व नहीं हैं। उनका हमें आत्मबल के द्वारा सदा के लिये नाश करना होगा, अपने लिए और समस्त मानव जाति के कल्याण के लिए इस जगत को स्वर्ग बना देना हमारा कर्तव्य है।
-कृष्ण भगवान ने महाभारत में कहा था कि कुछ लोग इस संसार में प्रवृत्ति मार्ग का उपदेश देते हैं कुछ निवृत्ति का। किन्तु मैं निवृत्ति मार्ग वाले अकर्मण्यों से सहमत नहीं हूँ। क्योंकि वे शक्तिहीन हैं। मैं भी श्रीकृष्ण के उपर्युक्त कथन का अनुकरण करता हूँ।
-आपको अपने शरीर की परवाह नहीं करनी चाहिए, आप से ज्यादा परवाह परमात्मा करता है। केवल आत्मबल प्राप्त करो, शरीर रक्षा ईश्वर के भरोसे छोड़ दो।
-जहाँ धर्म है, वहाँ जय है। किन्तु धर्म के साथ ही साथ शक्ति होना जरूरी है, नहीं तो अधर्म का अभ्युत्थान हो जाता है।
-विरोध और युद्ध धर्म के अंश हो सकते हैं, किंतु विद्वेष और घृणा धर्म के बाहर हैं।
-क्या आप में परमात्मा का अंश है? क्या आपको यह मालूम है कि आपका शरीर निज का नहीं, आप परमात्मा के साधन-मात्र हैं। यदि आपको यह अनुभव हो गया है, तो आप सच्चे राष्ट्रवादी हैं और तब ही आप इस महान राष्ट्र का उद्धार कर सकेंगे।
-योग प्राप्ति के बिना द्वन्द्व का अत्यन्त नाश नहीं होता। गुणातीत योगी यदि नरक में भी डाल दिया जाये तो वह उस नरक को स्वर्ग बना लेता है। पूर्ण ज्ञानी इस दुःख रुपं जगत को अपना स्वर्ग बना लेता है। वह कहता है-’यह सब आनन्दमय ब्रह्मा है, सत्य है, शिव है, सुन्दर है।’
-प्रेम, साहस, दया, सत्य और शील नित्य हैं, अतः ये धर्म हैं। घृणा, कायरता, निर्दयता, असत्य और नीचता विकार हैं। यही अधर्म हैं, योगी को विकारात्मक अधर्म छोड़ कर सनातन धर्म ग्रहण करने होंगे।