(तुलसीकृत रामायण से)
सन्तन्ह के लक्षण सुन भ्राता।
अगणित श्रुति पुरान विख्याता॥
सन्त असन्तन कै असि करणी।
जिमि कुठार चन्दन आचरणी॥
काटै परसु मलय सुनु भाई।
निज गुण देह सुगन्ध बसाई॥
दो-ताते सुर शीशन्ह चढ़त, जग बल्लभी श्रीखंड। अनल दाहि पीटत घनहि, परसु बदन यह दंडा॥
विषय अलंपट शील गुणाकर।
पर दुख दुःख, सुख सुख देखे पर॥
सम अभूत रिपु बिमद विरागी।
लोभामर्ष हर्ष भय त्यागी।
कोमल चित दीनन्ह पर दाया।
मन वच क्रम मम भक्ति अमाया॥
सबहि भान प्रद आपु अमानी।
भरत प्राण सम ममते प्रानी॥
बिगत काम मम नाम परायन।
स्टान्ति विरति विनति मुदितायन॥
शीतलता सरलता मइत्री।
द्विज पद प्रीति धर्म जनयित्री॥
ये सब लक्षण बमहि जासु उर
जानउ तात संत सन्तत फुर॥
सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं।
पुरुष वचन कबहु नहिं बोलहिं॥
दो-निन्दा अस्तुति उभय सम, ममता मम पद कंज। ते सज्जन मम प्राण प्रिय, गुण मंदिर सुख पुँज॥