(श्री स्वामी विवेकानन्द जी महाराज)
जिस दिन किसी वस्तु पर अथवा किसी प्राणी पर आपका प्रेम होगा फिर चाहे वह स्त्री हो, पुत्र हो अथवा दूसरा कोई हो, उस दिन आपको विश्वव्यापी प्रेम का रहस्य मालूम हो जावेगा। इन्द्रिय सुख के लिए प्रेम करने वाले मनुष्य का लक्ष बहुधा जड़ विषय के आगे नहीं जाता। हम कहते हैं कि अमुक पुरुष का अमुक स्त्री पर प्रेम हुआ, परन्तु वास्तव में प्रेम उस स्त्री के शरीर पर होता है। वह उसके भिन्न भिन्न अंगों का चिन्तन करता है। अर्थात् जड़ विषयों में जो आकर्षण रहता है, उस आकर्षण का ही स्वरूप प्रेम नाम से पहचाने जाने वाले विकार के स्वरूप हैं। सच्चा प्रेम करने वाले, इस प्रकार के दो मनुष्य एक दूसरे से चाहे हजारों मील के अन्तर पर हों, पर उनके प्रेम में फर्क नहीं पड़ता। वह नष्ट नहीं होता और न उससे कभी दुख की उत्पत्ति होती है।
हम निग्रहित होते हैं, बन्धन में पड़ते हैं, कैसे इसलिये नहीं कि हम कुछ देते हैं बल्कि इसलिए कि कुछ चाहते हैं। प्रेम करके हम दुख पाते है। परन्तु दुख हमें इसलिए नहीं मिलता कि प्रेम किया है। दुख का कारण यह है कि हम प्रेम के बदले प्रेम प्राप्त करना चाहते हैं। जहाँ इच्छा नहीं है चाह नहीं है, वहाँ दुख, क्लेश भी नहीं है। निस्वार्थ भाव से दूसरों को देते रहो, तभी सुखी हो सकोगे यह प्रकृति का अखण्ड नियम है।