चेतावनी

December 1941

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(सन्त कबीर)

कबीर नौवत आपनी दिन दस लेहु बजाय।

यह पुर पाटन, यह गली, बहुरि न देखहु आय॥

सातों शब्द जु बाजते, घरि घरि होते राग।

ते मन्दिर खाली पड़े, बैठन लागे काग॥

एक दिन ऐसा होयगा, सब सों पड़े बिछोह।

राजाराणा छत्रपति, सावधान किन होइ॥

कबीर कहा गरवियों, इस जीवन की आस।

टेसू फूले चारि दिन, खंखर भये पलास॥

कबीर कहा गरवियों, उँचे देखि अवास।

कल मरघट में लेटना, उपर जम है घास॥

कबीर कहा गरवियो, काल गहै कर केस।

ना जानों कब मारिहैं, कै घर कै परदेश॥

यह ऐसा संसार हैं, जैसा सेंवर फूल।

दिन दस के व्यौहार को, झूठे रंग न भूल॥

जीवन मरण विचार के, कूड़े काम निवारि।

जिस पथ से चलना तुझे, सोई पंथ सँभारि॥

बिन रखवारे बाहिरा, चिड़ियों खाया खेत।

आधा परधा ऊबरै, चेति सकै तो चेत॥

हाड़ जलैं ज्यों लाकड़ी, बाल जलें ज्यों घास।

सब तन जलता देख कर, भया कबीर उदास॥

कबीर धूलि समेट करि, पुड़ी जु बाँधी एह।

दिवस चारि का पेखना, अन्त खेह की खेह॥

कबीर सुपने रैन के, ऊघड़ि आये नैन।

जीव पडया बहु लूटि में, जगै तो लेन न दैन॥

कहा कियौ हम आय कर, कहा कहैंगे जाय।

लाभ लेन तो दूर है, चाले मूल गवाँय॥

यह अवसर चेता नहीं, पशु ज्यों पाली देह।

राम नाम जाप्पा नहीं, अन्त पड़ी मुख खेह॥

मानुष जीवन दुलभ है, देह न बारम्बार।

तरुवर ते फल झड़ि पड़ा, बहुरि न लागै डार॥

कबीर यह तन जात हैं, सकै तो लेहु बहोर।

नंगे हाथों वे गये, जिन के लाख करोर॥


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