स्वर्णिम-पथ!

December 1941

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(पं. श्रीकान्त शास्त्री, नारायणपुर)

वह थी उषा का सुषुमापूर्ण शुभागमन-बेला। रजनी का धूमिल अम्बर स्वच्छ एवं सुरुचिपूर्ण हो चला था। तारक-तति के अद्भुत तिरोधान से एक अलौकिक छटा छा गई थी। मलयानिल की मधुरता एक अजीब मादकता उड़ेल रही थी। अचानक सराय का सदर फटक खोलने को द्वारपाल आ धमका। कहना नहीं होगा कि उसके बहुत पहले ही से यात्रियों का एक दल निश्चित सा हो, द्वार के वृहद् कार्य कपाटों पर दृष्टि केन्द्रित कर द्वारपाल की प्रबल प्रतीक्षा कर रहा था। यद्यपि वे यात्री थे, पर उनके पास न तो पाथेय था और न जलपात्र ही। फिर भी यह सर्वथा उल्लेखनीय है कि उन भिखमंगों के दिव्य चेहरे पर अदम्य उत्साह की कान्ति प्रधोतित हो रही थी। द्वारपाल ने उनके प्रति सहानुभूति पूर्ण शब्दों में कहा-आप कहाँ जायेंगे? जलधिनायक ने सुस्मित स्वरों में उत्तर दिया-अनन्त की ओर!

‘तो किस मार्ग का द्वार खोलने की चेष्टा करूं?

‘स्वर्णिम-पथ का’।

‘आखिर आप लोगों का संक्षिप्त परिचय पाने की चेष्टा कर सकता हूँ?’

‘हाँ क्यों नहीं! हम अनन्त पथ की ओर जाने वाले अमर-यात्री हैं ‘।

‘(आश्चर्य से) अनन्त पथ की ओर! स्पष्ट बतायें आपका मन्तव्य क्या है?’

‘(मुस्कुराकर) महाशय! हम वहाँ तक जायेंगे, जहाँ तक कोई जा सकता है।’

‘पर आपके पास यात्रा की तो कोई सामग्रियाँ नहीं हैं ‘।

‘हैं, हमारे पास करेन्सी नोट हैं। उन्हें ही भुनाकर अपना काम कर लेंगे, उस दिव्य नोट का नाम आत्म-बल है’।

‘ऐसी बात है तो आइये-मैं स्वर्णिम-पथ का द्वार खोलता हूँ। इसका दूसरा नाम कर्त्तव्य-पथ है। इसका द्वार सुई की सुराख से भी समाधिक संकीर्ण एवं असि धार से भी तीक्ष्ण है’। ‘कोई परवाह नहीं’ यह कहता हुआ दलाधिपति अपने दल बल के साथ पलक मारते आँखों से ओझल हो गया।

(2)

भगवान् भास्कर ने अपनी स्वर्णिम एवं सुस्निग्ध शैशव किरणों से घास पर बिखरी मोती सी ओसों को चुगना प्रारम्भ किया। लता गुल्मों ने अपनी उलझाई आँखों से संसार को कटाक्ष मय दृष्टि से देखा। यद्यपि मन्दिर एवं गिरजों के घण्टे और घड़ियाल बेसुध बज रहे थे, पर फिर भी उनके तुमुल नादों को फोड़ते हुए ये नारे अभी तक कर्णकुहरों में प्रवेश कर रहें थे-’हम लोग स्वर्णिम-पथ पर अनन्त की ओर जा रहे हैं, जिसे अनुसरण करना हो पद-चिन्ह देख कर आये।’ पर हन्त! यह तो मुझे बिलकुल मालूम नहीं है कि कोई पद-चिन्ह देख कर गया या नहीं, कारण मैं तो दिन चढ़े तक शय्या पर बेसुध पड़ा हूँ और कब तक चित्त पड़ा रहूँगा, मुझे बिलकुल मालूम नहीं।


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