प्रभावशाली-व्यक्तित्व

December 1941

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

प्रभावोत्पादक साधनों को बलवान बनाने के लिये यहाँ कुछ विशेष अभ्यास बताये जाते हैं। नेत्रों को प्रभावशाली बनाने के लिये यह अभ्यास करना बहुत उपयोगी है कि एक बड़ा दर्पण सामने रखो और अपने प्रतिबिम्ब के नेत्रों की तरफ अपनी आंखें पूरी तरह खोलकर घूरो जिससे नेत्रों की नसों पर कुछ जोर पड़े। इसमें भौहों पर जोर देने की कोई आवश्यकता नहीं है। सिर को सीधा रखो और पहले प्रतिबिम्ब के बाएं नेत्र पर फिर दाहिने नेत्र पर घूरना जारी रखो जब दृष्टि एक नेत्र से हटाकर दूसरे पर ले जानी हो तो इस कार्य को बहुत धीरे करना चाहिये झटके के साथ दृष्टि हटाने की भूल न करनी चाहिये। यह अभ्यास एक मिनट से आरम्भ होकर पाँच मिनट तक पहुँचाया जा सकता है। अधिक की कोई आवश्यकता नहीं। इस अभ्यास को निरन्तर करते रहने से दृष्टि प्रभावशाली हो जाती है। दृष्टि को सहेज कर रखने के लिये यह भी आवश्यक है कि दिन भर आँखों से बहुत अधिक परिश्रम मत लो और अंधेरे में, या तेज सवारी पर बैठकर कुछ मत पढ़ो।

वाणी को प्रभावशाली बनाना हो तो जल्दी जल्दी बहुत बकवाद करने की आदत छोड़ो। कम बोलो परन्तु जब बोलो तब मन्द गति से, स्पष्ट रूप से, खुली आवाज़ से, और गम्भीरता से बोलो। कुछ पूछना हो या किसी के प्रश्न का उत्तर देना हो तब इस नियम को ठीक प्रकार काम में लाओ। तुम्हारी वाणी प्रभावशाली बन जायेगी। जिस व्यक्ति, से जिस विषय पर बात करनी है उस से घुल-घुलकर बाते करो और अपने मन को निर्दिष्ट विषय पर ही केन्द्रित रखो। अस्थिरता और उदासीनता पूर्वक किया हुआ वार्तालाप प्रायः सफल परिणाम उपस्थित करते हुए नहीं देखा जाता।

बेशक नेत्र और वाणी यही दो इन्द्रियाँ मनुष्य के व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाती हैं। किसी अपरिचित व्यक्ति पर अपना उद्देश्य प्रकट करने और इच्छित परिणाम उपलब्ध करने में इनका बड़ा उत्तम असर होता है। परन्तु यदि इनके पीछे सचाई न हो तो वह माया आडंबर अधिक समय तक नहीं ठहरता। इन दोनों साधनों का प्रभावशाली होने आवश्यक है पर उससे भी आवश्यक यह है कि हमारा चरित्र निर्मल हो। हम अपने को विश्वसनीय बनावें, सच्चरित्र बनावें जिससे कि अन्य व्यक्तियों का गुप्त मन अपने आप हमारा आन्तरिक परिचय प्राप्त करले और वह अपनी जमानत पर हमारे विश्वसनीय व्यक्तित्व का सिक्का उसके मन पर जमाये।

आन्तरिक शान्ति इन तीनों की जननी है। प्रभावशाली नेत्र, ओजस्वी वाणी, और निर्मल चरित्र यह तीनों की मानसिक स्थिरता के बाल-बच्चे हैं। स्वार्थांधता और अतृप्त तृष्णा यह दोनों ही दुष्ट ऐसे हैं जो मन को विषाक्त बनाकर आन्तरिक कोलाहल उत्पन्न कर देते हैं। कूड़े के ढेर में जब तक अग्नि पड़ी रहेगी तब तक धुंआ उठता रहेगा। बाहरी उपचार से उस धुंऐ को रोकना व्यर्थ है क्योंकि उसका उद्भव स्थान जब तक मौजूद है तब तक निर्धूमता कैसी? मानसिक अशान्ति तब तक बनी रहेगी जब तक कि हम स्वार्थ और लिप्सा के गुलाम बने रहेंगे। लेने के स्थान पर देना, और भोगने के स्थान पर त्यागना जब तक न सीखा जायेगा तब तक जीवन की पेचीदा गुत्थियाँ न सुलझेंगी और उस उधेड़ बुन की बेचैनी आत्मा को दुखी बनाये रहेगी। ऐसी अस्थिर अवस्था में प्रभावशाली जीवन के यह तीनों साधन प्राप्त करना कठिन है, नकल बनाई जा सकती है पर उसकी हस्ती ही कितनी है? नकली सोना आखिर कितने दिन चमक सकेगा?

आप प्रपंचों में अधिक लिप्त मत हूजिये, छाया के पीछे अधिक मत दौड़िये। दृढ़ रहिये और कर्तव्य पथ पर शनैः शनैः एवं दृढ़ता के साथ कदम बढ़ाते चलिए। ईश्वर पर विश्वास रखिए, दूसरों को आत्मभाव से देखिए और लेने की अपेक्षा देना अधिक पसन्द कीजिए। आपके अन्दर आध्यात्मिक शाँति का आविर्भाव होगा और यह शान्ति निर्मल चरित्र का निर्माण करेगी। निर्मल चरित्र सूक्ष्म रूप से दूसरों के मस्तिष्क में विश्वसनीयता का स्थान पैदा करता है। साथ ही नेत्र और वाणी को प्रभावशाली बनाने के अभ्यास सोने में सुगन्ध का काम दे सकते हैं। इस प्रकार प्रभावशाली व्यक्तित्व प्राप्त करने में आप सफल हो सकते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118