अहंभाव का प्रसार करो!

September 1940

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ब्रह्मचर्य आश्रम

(ले.-पं. शिवनारायण शर्मा, हैडमास्टर आगरा)

इस भूमण्डल में जन्म लेकर मनुष्य यदि श्रेय मार्ग पर न चले तो उसका जीवन बिलकुल निष्फल है। अज्ञानवश मनुष्य अपना देवत्व भूलकर प्रेय मार्ग पर विचरण करते-करते बार-बार जन्म मरण के अधीन हो रहे हैं। भारतवर्ष के आर्य ऋषि जानते थे कि मनुष्य क्या है। इस कारण वे केवल आहार-विहारादि दैहिक क्रिया में ही रहने वाले मनुष्य को देखकर बहुत दुखित होते थे, जिससे मनुष्य प्रेय मार्ग परित्याग कर श्रेय मार्ग का अवलम्बन कर सके। अहंभाव का संकोच छोड़कर उसका प्रसार साधन करके, विशुद्धानन्द सम्भोग कर सके इसीलिए वे अपना-अपना जीवन उत्सर्ग करते थे। परन्तु ब्रह्मचर्य पालन किये बिना कोई उनके मार्ग पर चल नहीं सकता था। तिल में से जिस तरह पेरे बिना तेल नहीं निकलता, दूध में से मथित हुए बिना जिस तरह मक्खन नहीं निकलता, जिस तरह भूमि खोदे बिना जल नहीं निकलता, घिसे बिना जैसे अरुणी में अग्नि नहीं निकलती, उसी तरह ब्रह्मचर्य बिना मनुष्य के अंतर्निहित छिपी हुई शक्ति विकसित नहीं होती मैं का प्रसार नहीं होता।

तिलेषु तैलं दघिनीव सर्पिरापः स्त्रोतः स्वरणीषु चाग्निः।

एवमात्मनि गृह्यतेऽसौ सत्येनैनं तपसा योऽनुपश्यिति॥

(श्वेताश्वतर)

ऋषि जानते थे कि मनुष्य ब्रह्म का पुत्र है, इसी से वे मानवों को बार-बार पिता के अनुरूप होने को उत्साहित किया करते थे। ममता का संकोच त्याग कर ब्रह्म सदृश असीम अहंता पाने को बलवान होने का आदेश देते थे। वे कहते थे-

वेदाहमेतं पुरुषं महाँत आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्।

तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पंथा विद्यतेऽयनाय॥

(श्वेताश्वतर)

मैं उस महान पुरुष का विषय जानता हूँ वह आदित्य की भाँति प्रकाश है उसमें अज्ञानांधकार नहीं विराजता उसको जान सकने से ही जीव मृत्यु के हाथ से परित्राण पाता है। जीव को मोक्ष प्राप्ति का और कोई उपाय नहीं है।

वे कहते थे हे मानव! अपनी आपत्ति को मत भूलो तुम उसी पर ब्रह्म के पुत्र हो, अमर हो इंद्रादि देवता भी जिस तरह ब्रह्म के पुत्र हैं उसी तरह तुम भी उसी के पुत्र हो उन्होंने जैसे ब्रह्म में चित्तार्पण करके दिव्य ज्ञान प्राप्त किया है तुम भी उसी तरह उसकी शरण लेकर दिव्य ज्ञान की ओर चलो।

युजेवाँ ब्रह्म पूर्व नमोभि श्लोका याति पथ्येव सुराः।

शृण्वतिं विश्वे अमृतम्य पुत्रा आये धामानि दव्यानि ताथु॥

(श्वेता.)

ब्रह्मचर्य के द्वारा ही आत्मा की पूर्व जन्मार्जित और इस जन्म की मलिनता दूर होती है, सब भूतों में आत्मा का अनुभव होता है और अहंता का प्रसार होता है। इस प्रसार में ब्रह्मचर्य ही मुख्य सौपान है। वेदादि शास्त्रों में ब्रह्मचर्य की अपार महिमा कीर्तित हुई है। ब्रह्मचारी ही प्राचीन आर्य ऋषियों के हृदय की आदर्श मूर्ति थे; समिधपाणिं कृष्ण निताम्बर जटाधारी ब्रह्मचारी आर्य समाज के मुकुटमणि थे। वे अपने सुख-दुख भूलकर शीत ग्रीष्म वर्षा की परवाह न कर सागर पर्वतादि को प्रतिबन्धकता पर भ्रूक्षेप न कर केवल परोपकार व्रत हृदय का एकमात्र लक्ष्य करके देश-विदेश में सर्वत्र लौकिक और परलौकिक विविध मंगल साधन में अपना जीवन उत्सर्ग करते थे।

ब्रह्मचारी की आदर्शमूर्ति हृदय में उदित होने से ही वे आनन्दाश्रु विसर्जन करते-करते भूमण्डल में देव सदृश उन महात्माओं के गुण कीर्तन करना आरम्भ करते थे। आत्म संयम, क्लेश सहिष्णु और परोपकार वृत्ति रहे बिना जगत का कोई भी कार्य पूरा नहीं हो सकता। ज्वलन्त परोपकार वृत्ति हृदय में न रहने से कोई अपनी अधिकृत विद्या दूसरे को सिखा नहीं सकता। और बिना सिखाये भूलने लगता है। जितेन्द्रिय, निर्लोभ और प्रकृतिवर्ग का कुशल कामी हुए बिना राजा कभी राज्य शासन कर नहीं सकता। यदि कोई राजा ब्रह्मचारी ही आदर्शमूर्ति हृदय से बाहर कर दे तो अवश्य ही कुछ दिन में राज्य भ्रष्ट होना पड़ेगा। संसार में सर्वत्र देखा जाता है कि जहाँ नियम हैं, जहाँ आत्म संयम है, जहाँ परोपकार वृत्ति है, जहाँ अहंता का प्रसार है वहीं मृणाल, अरविन्द, सुशोभित, केलि पर हंसराजि विराजित सुशीतल वारिपूर्ण, मानस सरोवर रूप कुशल विद्यमान है। और जहाँ स्वेच्छाचार, असंयम, स्वार्थपरता है वहीं मानव के सब अनर्थ का स्वरूप विस्तीर्ण मरुमरीचिका तैयार है। अतएव ब्रह्मचर्य साधन बिना अपना या पराया कोई भी किसी का कार्य पूरा नहीं कर सकता। भारद्वाज ऋषि ने तीन जन्म तक ब्रह्मचर्य पालन किया। तीसरे जन्म के अन्त में जब वे आसन्न मृत्यु थे, तब इन्द्र ने उनसे जिज्ञासा की, कि यदि आपको चौथा जन्म मिले तो आप क्या करेंगे? उत्तर दिया कि “मैं ब्रह्मचर्य का अनुष्ठान करूंगा।”

(तैत्तिरीय ब्राह्मण)

परायाहित करने का संकल्प होने के लिए मानव को सबसे पहले अपना शरीर मन और आत्मा का उत्कर्ष साधने में पूरा यत्न करना चाहिए। दरिद्र कुटी को चाहे राज महल हो, अपने ज्ञान और कर्म के हेतु से जहाँ जन्म हुआ हो, आवश्यकतानुसार जो कार्यभार तुम्हारे कन्धे पर पड़ा हो उसे यदि सबल शरीर दीर्घायु, संयतमना, भगवद् भक्त न होंगे तो किसी तरह उसे अच्छी तरह पूरा न कर सकेंगे। ब्रह्मचर्य साधन द्वारा शरीर बलवान कर सकने से मानसिक वृत्तियों का उत्कर्ष साधन कर सकने से आपकी अहंता का प्रसार होगा, भववरिघ वक्ष पर जल के बुदबुदे की भाँति आपका बारम्बार उदय और लय न होगा।

दुर्बलकाय, दुर्बलचित्त, अविश्वासी पुरुष संसार का कोई काम नहीं कर सकता, इसी कारण ऋषि लोग जीवन के प्रथम भाग को ब्रह्मचर्य नाम से बता गये हैं। सब ज्ञान ब्रह्म ज्ञान ही के अंतर्गत है। जो कुछ ब्रह्मज्ञान का विरोधी है वही अज्ञान या अविद्या है।

वस्तुतः अनेक प्रकार के लौकिक कार्यों के साथ जो हम धर्माधर्म का कुछ सम्बन्ध नहीं समझते यह हमारा भ्रम है, बल्कि प्रत्येक मानव जीवन का जगत् के दृष्टानिष्ठ से घनिष्ठ सम्बन्ध है। हमारे छोटे-छोटे कामों से भी जगत् का हिताहित मिला हुआ है। ब्रह्म के चिदाकाश में हमारे जीवन के कार्य प्रतिबिम्बित होकर सुरक्षित रहते हैं, फिर वे बलिष्ठ और जीवन्त रूप से एक महती शक्ति रूप में परिणत होकर ‘अदृष्ट’ रूप से हमारे जीवन को चलाते हैं। केवल हमारे कार्य ही नहीं बल्कि हृदय के गुह्यतम विचार भी अदृष्ट बनकर हमें जीवन का, सुख-दुःख का विधान करते हैं। विश्वनाथ के विश्व में कोई कार्य निष्फल नहीं होता। आपके आहार-विहार, वस्त्राभूषणादि, जिनके साथ आप धर्माधर्म का कुछ सम्बन्ध नहीं मानना चाहते उनके साथ भी धर्म का सम्बन्ध रहता है, उन सबके साथ भी अहंता के प्रसार का सम्बन्ध है। विश्व के साथ आपके जीवन की इतनी घनिष्ठता है कि विश्व के अनिष्ट से आपका और आपके अनिष्ट से विश्व का अनिष्ट है। मैं यह कार्य करूंगा इससे मेरी यह क्षति होगी, दूसरे किसी को क्या, यह बात कहने का आपको अधिकार नहीं है, क्योंकि आप समाज के एक अंग मात्र हैं, आपकी क्षति होने से समाज के अन्यान्य लोगों की भी क्षति होगी अतएव समाज आपके अनिष्ट द्वारा समाज का अनिष्ट क्यों होने देगा? आर्यशास्त्र में आत्महत्या महापाप कहा है, इसके करने वाले को राजदण्ड भी मिलता है। इसका मूलतत्व तलाश करने पर समझ सकेंगे मनुष्य जीव का आपस में सम्बन्ध मिला होने से अपना अहित कोई भी करे तो समाज उसे रोकता है। जैसे कोई आत्महत्या कर अनाथ बाल-बच्चे छोड़ मरे तो वे समाज को भार रूप हो जाते हैं। यदि दीर्घायु होंगे तो समाज के तुम से अनेक लाभ होंगे, जगत के मंगल और तुम्हारे मंगल में कुछ विरोध नहीं है। अहं के प्रसार से भेद ज्ञान दूर होगा, ब्रह्मज्ञान प्राप्त होगा। जगत् की प्रायः सब क्रियायें प्रेयोमुखी हैं, श्रेयोमुखी नहीं है। श्रेयोमुखी ज्ञान क्रिया ही यथार्थ ज्ञान और यथार्थ कार्य है एवं प्रेयोमुखी ज्ञान क्रिया अज्ञान और अकार्य है। जिनका भेदज्ञान नष्ट नहीं हुआ, जिनका अहंभाव का प्रसार नहीं हुआ, जो आप ही अन्धे हैं उनसे ब्रह्मचर्य ग्रहण करने का ऋषियों ने निषेध किया है।

काम, क्रोध, लोभ ये तीन नरक के द्वार हैं, इस कारण इनका भी त्याग करो, इन्द्रिय संयम करो, सब जीवों पर दया करो यही ब्रह्मचारी जीवन का मूलमन्त्र है। जिन्होंने इन तीन को जीत लिया वे देवतुल्य हैं। हे भारतवासियों! जिस तरह अपने घर में शालिग्राम शिला स्थापन करते हो उसी तरह ब्रह्मचारी की मूर्ति प्रतिष्ठित करो, तो तुम्हारा क्षुद्रत्व दूर हो जायगा और जिनको तुम अछूत समझते हो वे तुम्हारे शिष्य बनने की प्रार्थना करेंगे।


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