अभिलाषा (कविता)

September 1940

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(श्री सावित्री देवी तिवारी हिंदी प्रभाकर, जयपुर)

नश्वर जग के अमित प्रलोभन बारबार हैं ललचाते।
बहुत रोकती हूँ पर मनके भाव उधर ही उड़ जाते॥

अन्तर्यामी प्रभु मेरी जीवन नौका को पार लगाना।
घोर निराशा और समझ न पड़ता अपना और बिराना॥

फूँक-फूँक कर रखती हूँ पग, काँटे हैं पर बिछ जाते।
झुलस-झुलस जग के तापों से नयन तप्त जल बरसाते॥

मुझको परवा नहीं तनिक भी इस कठोर तम बन्धन की।
प्रभु चरणों में मग्न रहे मन, यह अभिलाषा जीवन की॥


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