(श्री लक्ष्मी)
जीवन की मधुमय बेला में,
मैं शाँति-पाठ पढ़ने आई।
बलिहार हो गये दीवाने,
लख कर मेरी कोमलताई॥
साथी ने अपने अंक बीच,
मेरी शुचि सुषुमा विखराई।
मैं हँसी देख निज विभव मंजु,
विरदों ने गुण-गाथा गाई॥
दो दिन की चमक-दमक थी वह,
उस क्षण न समझ मैंने पाई।
अन्तिम परिणाम निहार स्वयं,
विवरण पर अपने पछताई॥
मैं श्रेयहीन हो गई अन्त में,
हो अधीर, अतिशय रोई।
सुख समय रही सबको होकर,
दुख में न बना अपना कोई॥