मातृशक्ति और मानव (कविता)
(श्री रुपकान्ता देवी, आगारा)
जग के सूखे मरुस्थल में, सूखा बालू था छाया।
मैंने यह उर्वरा बनाया, जीवन-स्रोत बहाया॥
नष्ट किये देती थी मानव को विनाश की छाया।
मैंने इसे उठाया पथ में अमृत घोल पिलाया॥1॥
अपनी मिट्टी, अपना पानी, अपना बना खिलौना।
अपना लाड़ दुलार लुटाया, तब पनपा यह छोना॥
आज इसे इतना कर पाया, खाये और कमाये।
जग में खुद विकसे औरों को विकसाये-हरषाये॥2॥
पर यह चला कुल्हाड़ा लेकर कहता ‘काट धरूंगा’।
विश्व विनाश करूंगा, मैं अब मारूँ और मरूंगा॥
रक्त बहाऊँगा पृथ्वी पर, अपनी तृपा बुझाने।
मैं सम्राट बनूँगा सुरपति आयें मुकट पिन्हाने॥3॥
अरे अभागे! नश्वर कृमि! अपनी औकात न देखी।
भूल गया असली हस्ती यों चला मारने शेखी॥
चींटे! तेरे पर पग उग आये उचक उड़ान लगाता।
मेरे द्वारा पीली पोसा, मेरा हृदय दुखाता॥4॥