साधना की सिद्धियाँ

September 1940

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(ले. श्रीकृष्ण शंकर, उमिया शंकर जी)

साधना शब्द का प्रयोग देवी देवताओं को उपासना के लिए भी होता है, जिससे अभीष्ट महान् कार्य की सिद्धि होती है। देश, काल, क्रिया, वस्तु और कर्त्ता में पाँचों जब साधना के लिए उपयुक्त होते हैं तभी साधना सिद्ध होती है।

साधना दो प्रकार की होती है दैवी और आसुरी। इन्हीं को शास्त्र में दक्षिण और वाम मार्ग कहा गया है। दक्षिण मार्ग की साधना में साधक को लाभ चाहे न हो, परन्तु हानि तो होती ही नहीं। पर वाम मार्ग की साधना में लाभ नहीं होता तो नुकसान जरूर होता है। दक्षिण मार्ग में तत्काल लाभ नहीं दीखता, धीरे-धीरे कल्याण होता है, परन्तु वाम मार्ग में तत्काल ही लाभ-हानि हो जाती है।

दोनों में ही अक्रोध, शौच और ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक है। इनका पालन न करने से दक्षिण मार्ग में कोई फल नहीं मिलता परन्तु वाम मार्ग में बड़ा नुकसान हो जाता है। कभी-कभी तो प्राणों पर आ बीतती है। वाम मार्ग में जरा भी कहीं चूके कि बलिदान होते देर नहीं लगती।

मेरे एक मित्र ने किसी मन्त्र की सिद्धि के लिए ग्रहण के दिन श्मशान में एक आक के पेड़ के नीचे बैठकर साधना शुरू की। उन्हें सामने के पहाड़ से एक अघोरी उतरता दिखाई दिया। अघोरी ने श्मशान में पहुँच कर एक बच्चे की गड़ी हुई लाश निकाली और उसे सेक कर खा गया। फिर वहीं गुम हो गया। यह देखकर मेरे मित्र का शरीर मारे डर के पसीने-पसीने हो गया, वे बड़े जोर से चीख मारकर वहीं ढुलक पड़े। वहाँ उनकी कौन सुनता? ग्रहण शुद्ध होने पर लोग नहाने को आये, चन्द्रमा का उजयाला हुआ, तब किसी ने उनको वहाँ पड़े देखा। उठाकर मन्दिर में लाया गया। जोर से ज्वर चढ़ा था। तीन चार दिनों बाद बुखार उतरा, पर वे पागल हो गये और कुछ ही वर्षों के बाद शरीर छोड़ कर चल बसे।

वेद में ब्राह्मण और मन्त्र- ये दो विभाग हैं, किसी भी देव की सिद्धि के लिए उस देवता की मूर्ति, यन्त्र और मन्त्र की जरूरत है। प्रयोग के समय वहाँ एक-दो आदमी उपस्थित रहने चाहिए। कभी-कभी तो मनुष्य एकाँत से ही डर जाता है और यों उसका सब काता-बुना कपास हो जाता है।

मेरे एक परिचित देवी के उपासक थे। वे अपने घर में रात्रि को सदा उनके मन्त्र का जाप करते। एक दिन उन्होंने एकाएक अपने शरीर पर कुछ बिच्छुओं को चढ़ते देखा। वे काँप उठे। बिच्छुओं को झड़काने लगे। फिर मंत्र शुरू किया, बिच्छू फिर चढ़ने लगे। बस, तब से उन्हें सिद्धि तो मिली ही नहीं, परन्तु जहाँ जप शुरू किया कि लगे कपड़े झड़काने! उनके मन में निश्चय हो गया कि मेरे कपड़ों पर अभी बिच्छू चढ़ रहे हैं। ऐसे समय में कोई दूसरा पुरुष पास होता तो शायद वे रास्ते पर आ सकते!

डामर-तन्त्र के मन्त्र तत्काल सिद्धि देते हैं, पर उनका फल थोड़े ही समय के लिए रहता है। स्थायी नहीं रहता। वे मन्त्र केवल चमत्कार दिखाने में ही काम करते हैं।

उग्र देवता की साधना और उग्र फल की प्राप्ति के लिए बहुत बार अपने प्राणों को हथेली पर रख देना पड़ता है। गाँवों और शहरों में कितने ही ऐसे साधू फकीर मिलते हैं, जो कुछ शून्य साधना करते हैं और जरूरत पड़ने पर किसी-किसी समय वे उन्हें आजमाते हैं। बिच्छू और साँपों का जहर उतारने वाले मन्त्र-साधक तो हम लोग बहुतेरे देखते हैं। हमारे राज्य में तो ऐसे एक सज्जन सौ रुपये मासिक वेतन पर नियुक्त हैं।

मेरे एक सम्बन्धी के घर हमेशा एकाधिक बिच्छू निकलता रहता। मेरे जात के एक सज्जन मन्त्रशास्त्री हैं। मैंने उनसे कहा। उन्होंने जाकर मकान के आसपास अभिमन्त्रित जल छिड़क दिया। प्रायः दस मिनट के बाद चारों ओर से बिच्छू आ-आकर इकट्ठे होने लगे। लगभग पचास बिच्छुओं की पकड़-पकड़कर एक बर्तन को भर लिया गया और उन्हें वे दूर छोड़ आये। तबसे आज तक वहाँ एक भी बिच्छू दिखलायी नहीं पड़ा।

लक्ष्मी की प्राप्ति के लिये मैंने लक्ष्मीसूक्त का ‘काँसोस्मिताँ’ मन्त्र सिद्ध करने का निश्चय किया। दुर्गापीठ में बतलाई हुई विधि के अनुसार न्यास और ध्यान सहित मैंने उक्त मन्त्र का सम्पुट देकर जप शुरू कर दिया। लगभग पन्द्रह सम्पुट शतचण्डी पूरी हो गई, परन्तु मेरी साधना सफल नहीं हुई। इस पर भी मैंने प्रयोग को चालू ही रखा। एक दिन एकाएक मेरे मन की स्फुरणा हुई कि इन मंत्रों को श्री महादेवजी ने कील रखा है। उत्कीलन किये बिना सिद्धि नहीं मिलती। तब मैंने मन्त्र को उत्कील किया। बस, तुरन्त ही घी और तेल के जो दीपक स्वाभाविक जल रहे थे उनमें ज्योति पैदा हुई और वह मेरी आँखों तक ऊपर की ओर उठी। देवता का सिंहासन मेरे सामने था। दुर्गापीठ की पोथी खुली पड़ी थी। पाठ लगभग पूरा होने को आया था। रात्रि के बारह बजे थे। जन्माष्टमी के कारण पास ही देव मन्दिर में दर्शनों के लिए दौड़-धूप हो रही थी और कोलाहल मचा हुआ था।

इसी बीच इस घटना के बन जाने पर मैंने सोचा, मेरी आँखों में जल भर आया होगा, इसी से मुझे ऐसा लगता होगा। इसलिये मैंने आसन से उठकर आँखों पर जल छिड़का, मुँह धोया और फिर पाठ करना शुरू कर दिया। पाठ शुरू करना था कि फिर वही हाल!

मुझे कुछ डर-सा लगा कि कहीं मैं जल न जाऊं। अतएव मैं उठकर दर्शन करने चला गया। फिर नहा धोकर अधूरा पाठ पूरा करने बैठा। पाठ शुरू करते ही फिर वही हाल हुआ। इस समय रात्रि के दो बजे थे। मनुष्यों के पैरों की आहट शाँत हो गयी थी। चारों ओर सुनसान था। सारी पोथी और सिंहासन तेजोमय हो रहे थे। जैसे-तैसे पाठ पूरा करके मैं उठा। उस समय सबेरे के पाँच बजे थे।

नवमी के दिन मैंने पाठ न करके केवल जप शुरू किया। जप करने में भी वैसा ही हुआ। तब से मेरे अन्दर लक्ष्मी जी आने लगीं। मेरी वकालत की प्रैक्टिस बढ़ती ही गई। यहाँ तक कि किसी-किसी समय तो खाने-पीने का भी अवकाश नहीं मिलता और अधिकाँश समय तो मुझे सिर्फ चाय और चिउरों पर चलाना पड़ा था। रात के दो बजे तक फुरसत नहीं मिलती।

मैं अपने एक मित्र के साथ गिरनार पहाड़ पर जा रहा था। साधु-संतों की चर्चा चल रही थी। मित्र ने कहा, तुम्हें यह सब एकाएक कैसे हो गया? ‘मैंने कहा- चमत्कार देखना हो तो अभी दिखाऊँ।’ मैंने तुरंत ही ‘काँसोस्मिताँ’ मन्त्र का जप शुरू किया। हम लोग बहुत आगे बढ़ गये, परन्तु कुछ भी हुआ नहीं। मैं कुछ सकुचाया। जप तो चालू था। इतने में ही एक पेड़ की ओर से आवाज आयी- ओ वकील साहेब। आवाज सुनकर मेरे मित्र और मैं स्तब्ध होकर इधर-उधर देखने लगे। एक फकीर ने केवड़े की एक फली और नकद पन्द्रह रुपये पैरों में रखकर मेरे चरण छुए। मेरे मित्र यह देखकर मन्त्रमुग्ध से रह गये। मुझे याद नहीं था कि इस फकीर की लगभग डेढ़ वर्ष पहले मैंने फौजदारी से छुड़ाया और वे रुपये उसी की फीस के थे।

कई मन्त्र देवता अन्धे होते हैं। कई बहरे, गूँगे और लूले-लंगड़े भी होते हैं। ऐसे देवताओं की साधना कष्टसाध्य है। द्वादश मुद्राओं के साधन से इनको सिद्धि प्राप्त हो सकती है, परन्तु अगर कहीं जरा भी चूके कि फिर चौकड़ी भूलते देर नहीं लगती।

किसी-किसी देवता से साधक की पूरी पटती ही नहीं, इससे वह चाह कितनी ही साधना करे, हाथ में आई हुई बाजी भी छटक जाती है और साधना व्यर्थ होती है।

सिद्ध-देव की साधना सिद्धि प्राप्त होने के बाद भी साधक को चालू रखनी चाहिये। नहीं तो, उस दैवी सिद्धि को अदृश्य होते देर नहीं लगती; और फिर उसका हाथ लगना असम्भव हो जाता है।

साधक के लिये प्राप्त हुई सिद्धि का उपयोग स्वार्थ में न करके परमार्थ में ही करना श्रेयस्कर है। थोड़े समय के लिये साधक को स्वार्थ-साधन होता देखकर सुख होता है, परन्तु इसके लिये आगे चलकर उसे बहुत कुछ सहन करना पड़ता है।

‘क्लौ काली-विनायकौ’ कलियुग में काली और विनायक की साधना शीघ्र सिद्ध होती है। बस, इतना सुनकर मेरे एक वकील मित्र ने गणपति की साधना आरम्भ की। जप, तर्पण, मार्जन, होम और ब्राह्मण भोजन सभी साधनों में आवश्यक है। कुछ खास-खास जप-तप प्रायश्चित्तादि तो दोष निवारण के लिये करने पड़ते हैं। इस प्रकार करते उक्त वकील मित्र को लगभग तीन महीने बीत गये। ब्रह्मचर्य का व्रत भंग हुआ। इससे चौथे महीने के चौथे दिन उन्हें रात को स्वप्न में हाथी दिखायी दिये, वे उन्हें मारने के लिये आगे बढ़ जा रहे थे एक-दो बार जागे, परन्तु विशेष ध्यान नहीं दिया फिर एकाएक जाग उठे और ‘मुझे ये हाथी मार रहे हैं, बचाओ-बचाओ’ पुकारते हुए दौड़ने लगे। चिल्लाहट सुनकर स्त्री-बच्चे जागे और उन्हें पकड़कर जल पिलाकर शान्त किया। सबेरे देखा गया, उनके मुँह पर सूजन थी। एक सप्ताह तक दवा हुई। आखिर ऑपरेशन कराकर दो महीने अस्पताल में रहना पड़ा। मुश्किल से मौत के मुँह से बचे।

काली और विनायक बहुत उग्र देवता हैं और उनकी सिद्धि भी बहुत उग्र है। सूरत के मेरे एक परिचित सज्जन ने दोनों चौथ शुरू की। वे जाति के ब्राह्मण है और भिखारी की हालत में थे। परन्तु प्रभुकृपा से इस समय उनकी ऋद्धि-सिद्धि लाखों की समझी जाती है। साधना के बाद ही उनका विवाह हुआ। इस समय वे बाल बच्चे वाले और ढेले-तबेले वाले सुखी हैं।

‘साधना’ हिन्दू को ही सिद्ध होती है, ऐसी बात नहीं है। कोई भी हो, आस्तिकता और श्रद्धा के साथ करने पर साधना सभी को फल देती है।

च्ह्रठ्ठद्ग ख्द्धश ह्ह्वठ्ठह्य ष्ड्डठ्ठ ह्द्गड्डष्द्धज् जो दौड़ता है वह पहुँच सकता है। हमें कुछ करना तो नहीं। फिर, ‘शास्त्रों में सब गपोड़े भरे हैं’ यों कहने से कोई भी काम सिद्ध नहीं होगा। ‘साधना’ का शास्त्र ‘वरदान’ या शाप का शास्त्र नहीं है। साधना से भड़कने का कोई कारण नहीं है। भूख मिटाने के लिये हमें रोज का अन्न सिद्ध करना पड़ता है। यह जैसे हमेशा का ‘रुटीन’ है; इसी प्रकार किसी बड़े काम की सिद्ध के लिये हम बड़े लोगों की मदद लिया करते हैं। ठीक, इसी प्रकार हमें देवताओं की साधना करनी चाहिये। देवताओं की साधना से हमें चिर-स्थायी सुख मिल सकता है, यह निर्विवाद बात है। यों तो ऐसा मानता हूँ कि किसी भी ‘साधना’ के बिना मनुष्य महान् बन ही नहीं सकता। किसी एक वस्तु को अवश्य सिद्ध कर रखना ही चाहिये। कर्ण, भीष्म, द्रोण आदि के पास महान सिद्धियाँ थी। इसी से वे महान् बन सके थे।

(कल्याण)


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