इसे व्रतों में पृथक स्थान न है, न हो सकता है। यह अहिंसा का एक अर्थ है या यों कहिये कि उसके अंतर्गत है। परन्तु नम्रता अभ्यास से नहीं आती, वह स्वभाव में आ जानी चाहिए। जब पहली बार आश्रम की नियमावली तैयारी हुई तब उसका मसौदा मित्र वर्ग के पास भेजा था। सर गुरुदास बैनर्जी ने नम्रता को व्रतों में शुमार करने की सूचना दी थी, तब भी मैंने उसे व्रतों में न मानने का यही कारण बताया था, जो यहाँ लिखता हूँ। परन्तु इसे व्रतों में स्थान न होते हुए भी कदाचित यह व्रतों की अपेक्षा अधिक आवश्यक है, उनके जितना आवश्यक तो है ही। परन्तु अभ्यास से कोई नम्र बना हो सो तो कभी सुना ही नहीं। सत्य का, दया का, अभ्यास हो सकता है, नम्रता का अभ्यास करना तो दंभ सीखना हुआ। यहाँ नम्रता से मतलब उस चीज से नहीं है जो बड़े लोगों में एक दूसरे के सम्मानार्थ सिखाई-पढ़ाई जाती है। कोई आदमी दूसरे को साष्टांग नमस्कार करता हो तो भी उसके मन में उसके लिए तिरस्कार हो सकता है। यह नम्रता नहीं लुच्चपन है। कोई राम नाम जपता फिरे, माला फेरता रहे, मुनि जैसा बन कर समाज में विराजे, पर भीतर स्वार्थ भरा हो,- वह नम्र नहीं, पाखण्डी है। नम्र मनुष्य स्वयं नहीं जानता कि वह कब नम्र है। सत्य आदि का माप हम अपने पास रख सकते हैं, परन्तु नम्रता का माप नहीं होता स्वाभाविक नम्रता छिपी नहीं रहती। नम्र मनुष्य स्वयं उसे देख नहीं सकता। वशिष्ठ, विश्वामित्र के दृष्टान्त को तो हम अनेक बार आश्रम में समझ चुके हैं। हमारी नम्रता शून्यता तक जानी चाहिए। ‘हम कुछ हैं’ मन में इस भूत के आते ही नम्रता काफूर हो जाती है और हमारे सारे व्रत धूल में मिल जाते हैं। व्रत-पालन करने वाले यदि मन में अपने पालन का गर्व रखने लगे तो व्रतों का मूल्य खो बैठें, और समाज में विष रूप बन जायँ। उनके व्रत की कीमत न समाज करे न वे स्वयं ही उसका फल भोग सकें। नम्रता अर्थात् ‘अहं’-भाव का आत्यन्तिक क्षय। विचार करने से यह मालूम हो सकता है कि इस जगत में जीव मात्र एक रजकण की तुलना में भी कुछ नहीं है। शरीर के रूप में जीव क्षणजीवी है। काल के अनन्त चक्र में सौ वर्ष का प्रमाण निकाला ही नहीं जा सकता परन्तु यदि इस चक्र में से निकल जायँ, अर्थात् ‘कुछ भी नहीं’ हो जायँ, तो सब कुछ हो जायँ। ‘कुछ’ होना अर्थात् ईश्वर से, परमात्मा से, सत्य से दूर जा पड़ना, अलग होना। ‘कुछ’ मिट जाना, अर्थात् ‘परमात्मा में मिल जाना।’ समुद्र में रहने वाली बूँद समुद्र की महत्ता भोगती है, परन्तु इसे वह जानती नहीं। पर समुद्र से विलग हुई और आपे का दावा करने लगी कि उसी दम सुख गई है! इस जीवन को पानी के बुदबुदे की उपमा जो दी गई है, उसमें मैं लेशमात्र भी अतिश्योक्ति नहीं देखता। ऐसी नम्रता, शून्यता, अभ्यास द्वारा कैसे आ सकती है? परन्तु व्रतों को सच्चे रूप में समझने से नम्रता अपने आप आती जाती है। सत्य के पालन की इच्छा रखने वाला अहंकारी कैसे हो सकता है? दूसरों के लिए प्राण बिछाने वाला अपनी जगह कहाँ रोकने जाय? वह तो तभी अपनी देह को फेंक चुका, जब प्राण बिछाने का निश्चय किया। क्या इस नम्रता का अर्थ पुरुषार्थहीनता नहीं? हिन्दू धर्म में इसका अर्थ अवश्य ही किया जा चुका है; और इसी कारण अनेक स्थानों में आलस्य को, पाखण्ड को स्थान मिल गया है। वस्तुतः तो नम्रता का अर्थ तीव्रतम पुरुषार्थ है, परन्तु यह सब परमार्थ के लिए होना चाहिए। स्वयं ईश्वर चौबीसों घण्टे एक साँस से काम किया करता है, आलस्य मिटाने- जम्हाई लेने जितनी फुरसत भी नहीं लेता। हम भी वैसे ही हो जायें, उसमें मिल जायें, जिससे हमारा उद्यम भी उसके समान अतन्द्रित हो, और यही होना चाहिए। समुद्र से विलग बूँद के लिए हम आराम की कल्पना कर सकते हैं, पर समुद्र में रहने वाली बूँद को आराम कहाँ? ठीक यही बात हमारी है। ईश्वर रूपी समुद्र में हम समा जायँ, बस, हमारा आराम भी गया; आराम की जरूरत भी गई। यही सच्चा आराम है- यही है महा अशान्ति में शान्ति। अतः सच्ची नम्रता तो हमसे जीवमात्र की सेवा के लिए सर्वार्पण की आशा रखती है। सब कुछ परित्याग करने पर हमारे पास न रविवार रहता है, न शुक्रवार या सोमवार। इस स्थिति का वर्णन करना कठिन है। परन्तु यह अनुभवगम्य है। जिसने सर्वार्पण किया है, उसने इसका अनुभव भी किया है। हम सब इसका अनुभव कर सकते हैं। इस अनुभव की इच्छा से ही आश्रम में इकट्ठे हुए हैं, सारे व्रत, समस्त प्रवृत्तियाँ इस अनुभव के लिए हैं। दूसरा तीसरा करते हुए किसी दिन यह हमारे हाथ लग जायगा। इसी की शोध करने से यह प्राप्य नहीं।