(लेखक- श्री गौरीशंकर जी)
अपने सारे शरीर पर सूर्य की किरणों को डालना ही सूर्य स्नान कहलाता है। यदि हो सके तो नित्य और नहीं तो सप्ताह में 1-2 बार कम से कम आधे घंटे से एक घंटे तक अपने शरीर को धूप लगाना स्वास्थ्य के लिये बहुत हितकर है।
पूर्व काल में जानकार आदमी सूर्य-किरणों द्वारा ही अनेक बीमारियों का सफलतापूर्वक इलाज किया करते थे। वे यहाँ तक सफल हुये ये कि सूर्य को देवता स्वरूप मानकर नाना प्रकार से उसकी पूजा अर्चना के बहाने ही उसकी किरणों को अपने शरीर पर डालने के उन्होंने सभी प्रकार के साधन और विधियाँ बना रखी थी। नित्य सन्ध्या प्रकरण में भी दिन में कम से कम दो या तीन बार सूर्य को साक्षी में अर्थात् सूर्यास्त के समय सन्ध्या करने की शिक्षा वैदिककाल से ही किसी परमोपयोगी तथा लाभकारी उद्देश्य को लेकर दी गई है। इसी प्रकार अन्य बहुत से कार्य भी अधिकतर खुली हवा और सूर्य की बे-रोक-टोक या वृक्षों से छनकर आने वाली स्वच्छ रोशनी में ही हुआ करते थे। बड़ी-बड़ी पाठशाला और विद्यालय तथा ऋषि-मुनियों के आश्रम आदि ऐसे ही स्थानों में होते थे जहाँ स्वच्छ सूर्य-प्रकाश और खुली हवा को कभी किसी प्रकार की रोक-टोक न थी। यह वह कार्य करते समय पाठक लोग और शिष्य सब, कम से कम वस्त्र पहिना करते थे यहाँ तक कि रात-दिन के अधिक भाग में तो केवल कोपीन (लंगोट) ही धारण किया करते थे। इसी कारण उनका बल, बुद्धि आदि सब बातें, विलक्षणता पूर्वक पूर्ण विकास को प्राप्त होकर आजकल के लोगों को आश्चर्य में डालने वाली होती थीं।
वर्तमान समय में भी डॉक्टर सूर्य-स्नान का महत्व समझने लगे हैं और वे तो यहाँ तक बढ़ गये हैं कि साल में कुछ महीने शरीर के किसी अंग को बिना किसी प्रकार ढके ही अर्थात् बिलकुल नग्न होकर सूर्य-स्नान करने की उन्होंने परिपाटी निकाल रखी है और अनेक मासिक पत्र-पत्रिकाओं द्वारा वे इसका प्रचार दिनों-दिन बढ़ा रहे हैं। आज हमको उनकी यह बातें आश्चर्य में डालती हैं। उनका अंदरूनी उद्देश्य यही रहता है कि जहाँ तक हो सके कम से कम वस्त्र पहिने जायं जिससे शरीर पर सूर्य-किरणों का ज्यादा से ज्यादा प्रभाव पड़ सके क्योंकि इससे शरीर स्वस्थ और बलिष्ठ होकर अधिक समय तक काम कर सकने योग्य बनता है अर्थात् आयु की भी वृद्धि होती है।
औपचारिक दृष्टि से फ्राँस में एक परीक्षण हुआ था जिससे कुछ स्त्री पुरुष और बालकों को एक पक्ष के लिये बिलकुल हलके पतले सफेद बिस्तरों सहित सूर्य-किरणों में रक्खा गया था। उन्हीं को उतने ही समय के लिये बिना कपड़ों के भी सूर्य किरणों में रक्खा गया तो फल यह हुआ कि बिस्तरों सहित सूर्य किरणों में रखने के बनिस्बत बिना कपड़ों के रहने से उनके तौल में बहुत वृद्धि हुई। साथ ही उनका स्वास्थ्य भी ज्यादा ठीक प्रमाणित हुआ। नींद आराम की आई और साधारण कामकाज में तथा खेलकूद आदि में भी अधिक काम करने की शक्ति प्राप्त हुई देखी गई।
इसी प्रकार विगत यूरोपियन महासमर के समय डॉ. सीरेल (Serel) महोदय ने कुछ जख्मी सिपाहियों का इलाज पहिले सूर्य-किरणों द्वारा किया था। पहिले तो किरणों का उपयोग केवल उनके घावों पर ही किया गया जिसका फल बहुत थोड़ा हुआ। फिर जब उनके सारे शरीर को सूर्य-स्नान कराया गया तो उनके घावों में आशातीत लाभ हुआ और वे एकदम अच्छे होने लगे।
विगत 50 वर्षों से अधिक समय से सूर्य किरण-चिकित्सा से बहुत लाभदायक फल निकल रहे हैं। आजकल 6-7 अलग-अलग रंग की काँच की बोतलों में शुद्ध जल भरकर उन्हें 7-8 घण्टे धूप में रखकर उनके जल से ही भिन्न-भिन्न रोगों का इलाज किया जाता है। शरीर में जिस रंग की कमी हो जाने से जो रोग उत्पन्न हो जाते हैं उसी रंग की बोतल का जल उस रोग के रोगी को पिलाया जाता है जिससे वह रोग रहित हो जाता है। इसी प्रकार शरीर के बाहरी भाग पर मालिश आदि करने के लिए तेल भी तैयार किया जाता है जो अनेक रोगों पर काम आता है। जब सूर्य किरणों में रखे हुए जल में इस प्रकार की रोग-नाशक शक्ति आ जाती है तो सूर्य-किरणों के सीधे (Direct) शरीर पर लगाने में हम स्वास्थ्य क्यों न रह सकेंगे? अर्थात् अवश्य रहेंगे और संभव है कि कभी हमारे बीमार होने का अवसर न आवे।
प्रसिद्ध जर्मन डॉक्टर लुई कूहनी सभी रोगों पर सूर्य-किरणों का प्रयोग किया करते थे।
हम देखते हैं कि विशेषतया मनुष्य ही एक ऐसा जीव है जो अपने शरीर की रक्षा का उपाय कपड़ों से ढक कर करता है जिसका फल यह होता है कि वह सबसे अधिक तपेदिक आदि अनेकानेक बीमारियों का शिकार होकर पूर्ण आयु का उपयोग करने और सुखी जीवन बिताने में असफल होता है।
शरीर, बिजली की लहरों को ग्रहण करने और निकालने का मुख्य साधन है और जब उसको बहुत से अनावश्यक और तंग कपड़ों से लाद दिया जाता है तब उसकी यह क्रिया बहुत अंशों में बन्द होकर हानिकारक सिद्ध होती है। उपरोक्त पूर्वकालिक तथा आधुनिक बातों से शिक्षा ग्रहण करके हमको अपनी स्वास्थ्य रक्षा के लिए यह आवश्यक है कि नित्य कुछ समय के लिए खुली हवा और धूप में रहा करें तथा बालकों को भी इसका अभ्यास करावें जिससे राष्ट्र की भावी सम्पत्ति स्वस्थ रह कर बल बुद्धि और वीरता का आदर्श बन पूर्वकालिक महाबालकों के सदृश्य स्वतन्त्रता पूर्वक रहने और विचरण करने योग्य बन जाय।