उसने कुछ नहीं खोया

September 1940

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(महात्मा रामजीराम महाराज)

देवयानी ने कच के सम्मुख विवाह प्रस्ताव रखा तो कच सन्न रह गया। वह स्वयं देवयानी की जुदाई से व्यथित हो रहा था। परन्तु देवयानी से उसे ऐसी आशा न थी। बेचारा अवाक् रह गया। गुरु की पुत्री, जिसे वह बहिन से बढ़कर समझता है, पत्नी बनावे? न! यह न हो सकेगा उसने सिर हिला दिया।

यौवन की उद्दीप्त उमंगे, जिसे पाकर कोई भी अपने को धन्य मान सकता है ऐसी प्रतिभावान् सुन्दरी का प्रस्ताव, प्रेम की पराकाष्ठा, यह सब बातें कच के हृदय को विदीर्ण किये डालती थीं, प्रलोभन-प्रलोभन उसके चारों ओर मंडरा रहा था, ऐश्वर्य, अपार आनन्द और धर्म में घोर संघर्ष चल रहा था। कच क्षणभर के लिए किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया।

आखिर उसने धर्म को ही ग्रहण किया और सारे प्रलोभन को ठुकरा दिया।

गुरुपुत्री! तुम मेरी सगी बहिन से अधिक हो। तुम्हें मैं इस शरीर से बहिन के अतिरिक्त और कुछ नहीं कह सकता।

देवयानी ने कहा- तो मेरे साथ अब तक इतनी घनिष्ठता पूर्वक क्यों मिलते थे? कच ने उत्तर दिया, बहिन तुम्हीं बताओ कि पिता-पुत्री, भाई-बहिन, पुत्र-माता, क्या एक साथ हँसते-खेलते नहीं। छोटे बालक यदि पवित्र भावना से साथ-साथ नाच कूद सकते हैं तो बड़े होने पर वैसा क्यों नहीं किया जा सकता। शरीर के छोटे या बड़े होने से भावनाएं नहीं बदलती। जिसके मन में दूषण नहीं है उसका सात्विक मनोविनोद पाप कर्म नहीं कहा जा सकता। मैं विशुद्ध भावनाओं से ही तुम्हारे साथ खेलता-कूदता रहा हूँ उसी प्रकार अब भी और जीवन भर तुम्हारे साथ रह सकता हूँ।

देवयानी की चिरसंचित आशाओं पर मानो तुषार पड़ गया। प्रतिशोध की भावना से उसके नेत्र लाल हो गये। कुमारी ने शाप दिया- ‘जाओ कच, तुम्हारी विद्या निष्फल होगी।’

जीवन का एक बड़ा भाग जो देवयानी के पिता शुक्राचार्य द्वारा विद्याध्ययन में लगाया था, उसे खोकर तथा देवयानी जैसी रूपवती गुणवती रमणी को छोड़कर भी कच विचलित नहीं हुआ, वह देवयानी की चरण रज मस्तक पर चढ़ाता हुआ घर वापिस चल दिया।

उसकी आत्मा प्रसन्न थी क्योंकि सब कुछ खोकर भी धर्म को उसने नहीं खोया था। इसलिए उसने कुछ नहीं खोया था।


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