आत्मा परमात्मा का अंश है, मनुष्य ईश्वर का पुत्र है। बिछुड़े हुओं का चरम उद्देश्य आपस में मिलना है। बच्चा अपनी माता से बिछुड़ जाता है तो दोनों बेचैन हो जाते हैं। माता बच्चे के लिए व्याकुल फिरती है। और बच्चा सब कुछ भूल कर माता के लिए रोता फिरता है। अज्ञान के नशे में बेहोश हो जाने की बात दूसरी है। परन्तु यदि बहुत दिन बीत जाने पर भी बच्चे को यह पता चले कि उसकी माता मौजूद है और उसके लिए व्याकुल है तो निश्चय ही बालक विह्वल हो जायगा और माता को तलाश करने के लिए छटपटाने लगेगा। भक्ति का मूल सिद्धान्त यही है सभी अपनी जाति के साथ रहना चाहते हैं। प्रकृति का प्रत्येक परमाणु इसी विषय का पालन कर रहा है। एक धातु के टुकड़े जहाँ कुछ अधिक तादाद में इकट्ठे होते हैं वहाँ उसी धातु के परमाणु दूर-दूर जगहों से अपने आप खिंचते चले आते हैं और वे सब इकट्ठे होकर एक बड़ी खान का रूप धारण करते जाते हैं। खाने इकट्ठी होने का यही सिद्धान्त है। विचारों के परमाणु भी इसी प्रकार इकट्ठे होते हैं जैसा हम सोचते हैं उसी प्रकार के अन्य विचार परमाणु हमारे मस्तिष्क में जमा होने लगते हैं। पशुओं के झुण्ड, डाकुओं के गिरोह, साधुओं की जमातें बन जाना भी इसी प्रकार होता है।
विकास हर वस्तु का परमधर्म है। सभी वस्तुओं को देखिये वे पूर्ण बनने के लिए दौड़ लगा रही हैं। पानी की बूँद झरने, नाले, नदियों में होती हुई समुद्र में मिलने के लिए कितनी तेजी से दौड़ी जा रही हैं? अग्नि की लपट, ईंधन समाप्त होते ही महान् अग्नितत्व में मिलना चाहती हैं। जीव भी अपनी अपूर्णता, अशुद्धता और हीनता को त्याग कर परम पूर्ण सच्चिदानन्द स्वरूप में मिल जाने के लिए बढ़ता जा रहा है। यह उसकी आन्तरिक आकाँक्षा और स्वाभाविक धर्म है।
ईश्वर की भक्ति मनुष्य मात्र के लिए स्वाभाविक है। हम निर्धन हैं इसलिए सौ रुपये की इच्छा करते हैं। सौ पूरे हो जाने पर अमीर बनने की इच्छा होती है, अमीर के बाद शासक, शासक के बाद राजा और राजा के बाद चक्रवर्ती बनना चाहते हैं। फिर चक्रवर्ती राजा, समस्त भूमण्डल के अधिपति होने पर भी क्या विकास की इच्छा पूर्ण हो जाती है? नहीं! वहाँ से भी ऊँची कक्षा के लिए हम जाना चाहते हैं। वह अन्तिम स्थान परमात्मा है। उसी की प्राप्ति करना जीव का चरम लक्ष्य है। दैवी आन्तरिक इच्छायें इसी परम तत्व से मिलने के लिए आतुर रहती हैं। किन्तु दुष्प्रवृत्तियों द्वारा भटका हुआ मन हम आवाज को ठीक तरह नहीं पहिचान पाता और इस प्रवाह को इन्द्रिय लिप्सा की ओर ले दौड़ता है।
विश्व का जर्रा-जर्रा उसी आनन्द कंद की मुरली से झंकृत हो रहा है उसी चरम लक्ष्य की ओर चलना चाह रहा है। परमात्मा के चरणों से लिपटने की जो तीव्र आकाँक्षा है वही सच्चा मार्ग है और इसी पथ की सफलता सच्ची सफलता है। इस स्थान तक नास्तिक आस्तिक और विभिन्न धर्मानुयायी एकमत हैं।
अब आगे जो प्रश्न पैदा है वह पेचीदा है। ईश्वर भक्ति किस प्रकार की जाय? इस प्रश्न के बाह्य रूप पर आचार्यों में मतभेद हैं। भक्ति का आन्तरिक तत्व तो यही है कि परमात्म समुद्र में अपने को नमक की डेली की तरह घुला दिया जाय।
ईश्वर के रंग में ही भीतर बाहर से रंग जायं। जिधर दृष्टि उठावे उधर महबूब ही नजर आवे। सिवाय उस प्रीतम के कहीं कोई चीज ही दिखाई न पड़े।
साधना की बाह्य रूप रेखाओं में मतभेद है। कर्म संन्यास, और कर्मयोग मुख्य दो मार्ग हैं इनकी अनेक शाखा प्रशाखायें हैं। संन्यास धर्म, कर्म त्याग, वन सेवक, अहर्निशि तप साधन, यह विरक्त मार्ग हैं दूसरा रास्ता कर्म योग का है। शरीर से गृह धर्म का पालन करते हुये मन से ईश्वर के चरणों में अपने को निछावर कर देना।
हम इसी दूसरे मार्ग को सर्व साधारण के लिए उपयोगी समझते हैं और अनुभव करते हैं कि प्रथम मार्ग की अपेक्षा यह किसी दृष्टि से न्यून नहीं है। संन्यासी बनकर तप साधना, योगाभ्यास और पूर्ण वैराग्य को धारण करते हुए समाधि, स्वर्ग या मुक्ति प्राप्त की जा सकती है पर वह लाभ अपने लिए ही तो रहा। दूसरों का उससे क्या हित हुआ? ऐसी साधना का परिणाम आत्म कल्याण तो है परन्तु परमार्थ नहीं। दूसरे मार्ग की साधना सीधी-सादी, सरल और विडम्बनाहीन दिखाई देती है पर वास्तव में वह भी पहली के समान ही कठिन और कष्ट साध्य है। किन्तु फल की दृष्टि से वह दूनी है। आत्म कल्याण के साथ ही परमार्थ भी इसमें है।
परमात्मा संसार के प्रत्येक पदार्थ में व्याप्त है। संपूर्ण जीवों में उसकी मूर्ति विराज रही है यह बात कहने सुनने में जितनी सरल मालूम पड़ती है। उतनी क्रिया रूप में लाने में सुगम नहीं है। मैं यदि समस्त जीवों में ईश्वर का स्वरूप देखूँ तो मैं उन्हें अपने सम्बन्धी से किसी प्रकार कम न समझूँगा। क्या मैं परमात्मा के साथ झूठ, छल, दगाबाजी का व्यवहार कर सकूँगा? क्या परमात्मा की चोरी करूंगा? जिस परमात्मा की पाषाण मूर्ति के सन्मुख श्रद्धा और भक्ति के आँसू बहाता हूँ उसकी जीती-जागती प्रतिमूर्तियों का पीड़ित और कष्ट से त्रस्त देखूँ तो क्या मेरा हृदय उमड़ न पड़ेगा? अपने पेट भरने के लिए दरिद्रनारायण के हाथ का ग्रास छीनकर क्या अपने मुँह में रख सकूँगा?
विश्व को परमात्म दृष्टि से देखने के पश्चात सब कुछ अपना हो जाता है या अपना कुछ भी नहीं रहता। बात एक ही है सिर्फ दो प्रकार के शब्दों में कही गई है। परमात्म दृष्टि धारण करने वाला भक्त अपने भीतर बाहर चारों और प्रभु को खींचता हुआ देखता है और कहता है-
लाली मेरे लाल की, जिन देखो तति लाल।
लाली देखन को गई, मैं भी हो गई लाल॥
वह भक्त जनता जनार्दन को अपना प्रभु समझता है। दरिद्रनारायण की पूजा करते हुए उसका हृदय उमड़ पड़ता है। पीड़ितों की सेवा ही उसके जीवन का व्रत होता है। पाप कर्म उससे बन ही नहीं पड़ते। अखण्ड ज्योति के पाठक ऐसी परमात्म दृष्टि को धारण कर सकें तो वे ईश्वर की सच्ची भक्ति कर सकेंगे।