अभागा बटोही
(ले.—श्री जिज्ञासु)
प्राची का पट उधार ऊषा, अंगड़ाई सी लेती आई।
रवि लाल-लाल निकला, स्वर्णिम रेखा भू मण्डल पर छाई॥
उन्मत्त, विमुग्ध, वितन्द्रित से मानव को एक चुनौती सी-
देती, कुछ प्रश्न पूछती सी जग में सन्देह नया लाई॥
(2)
ओ, मरणोन्मुख मानव शरीर, कितनी सम्पत्ति समेट चला?
कितनी पूँजी संचित कर ली? संग्रह कितनी कर लो कमला??
ओ बनजारे कितना लादा? कि तना सामान बटोर लिया?
है आज कूच की तैयारी- इसका भी है कुछ ध्यान भला??
(3)
पर इस बेखबर बटोही को देखो कैसा प्रमाद छाया।
धुनना, बुनना, ताना, बाना, जंजाल नया एक फैलाया॥
मंजिल की सुधि बुधि भूल गया, इस नये जाल में उलझ पड़ा-
हा हन्त! कहाँ जाने को था, पर कहाँ अभागा ललचाया॥