(रचयिता- श्री रामनाथ गुप्त)
अहे विकृत युग के विरोध चिर! उज्ज्वल अवरोध पतन के!
सहस्रांशु कर से विकसाते मानस-वारिज जन-जन के!
गरज उठे कितने मुसोलिनी! तड़प उठे कितने हिटलर!
साक्षी बन कर देख रहे हैं भूधर-सिन्धु, धरा-अम्बर।
कण-कण शोणित-सिक्त विश्व का रुदन कर रहा है कह कर-
“और न रुधिर बहे संगर में, मरे न प्रभु का प्यारा नर,
सजें न रण के साज लहर पर, उड़ें न वायुयान विषधर,
रक्त -माँस-सज्जा-मण्डित वह मृत्यु न चले विजय रथ पर;”
पीड़ित युग की इस पुकार के तुम्हीं एक प्रतिनिधि भूपर,
दानव के साम्राज्य क्षेत्र में तुम्हीं एक मानव भूपर;
तुम अनेक में एक, भ्रमों में शुचि विवेक की कलित किरन;
असुरावृत इस अवनीतल में तुम्हीं सुर-सदन गहन;
बीते युग के सार और तुम नवयुग की आधार-शिला;
वर्तमान के यौवन-जिससे जरा जीर्ण संसार खिला।
कर्मयोग-विज्ञान-भक्ति की सरल समन्वय की रेखा-
-खिंची हुई तब भव्यानन पर आँख खोल जग ने देखा।
नयन-नीलिमा से बहती जगती में विप्लव की बिजली;
भृकुटि भंगिमा से हिलती जड़-जीण पुरातन की अवली;
वाणी की गरिमा में जलती जीवन की जगमग ज्वाला;
तप की महिमा से उठती जग शीतल सजल मेघ-माला।
उच्च हिमालय प्रेमामय है! गंगा की शतशः धारें-
फूट रही हैं, बुझा रही हैं झोंपड़ियों अंगारे;
विभु की व्यापकता से तुम निज युग हस्तों में निधियाँ ले-
प्रकृति विधात्री के लेखों से शाश्वत उज्ज्वल विधियाँ ले-
मंगलमय मानवता के तुम तन्मय हो फिर सिरजन में,
खिंची ज्योति की रेख आज तो सघन तमोमय मन-मन में।
-प्रताप
*समाप्त*