(श्री रामेश्वर दयाल गुप्ता, नौगढ़)
“यदि किसी के पास अनावश्यक धन हो तो वह किसे देना चाहिए?” यह प्रश्न उस व्यक्ति ने कितने ही सम्भ्राँति व्यक्ति यों से पूछा।
कई ने उसे दुत्कार दिया। क्योंकि इस भिक्षुक के पास भला क्या धन हो सकता था। सब जानते थे कि पर्णक अपरिग्रही है। वह उदर भरने के उपरान्त अन्न का एक कण भी अपने पास नहीं रखता। इसके पास अनावश्यक धन क्या होगा? एकाध मुट्ठी चावल बच रहे होंगे उसी के लिए धर्म मीमाँसा कराता-फिरता है। यह सोच लेना परिचित पंडितों के लिए स्वाभाविक ही था। फिर भी वह निराश नहीं हुआ। एक जगह फटकारा गया तो दूसरी जगह पहुँचा, दूसरी जगह दुत्कारा गया तो तीसरे का दरवाजा खटखटाया। इतना फालतू वक्त किसी के पास नहीं था जो तुच्छ वस्तु के लिए भी अपनी बुद्धि को कष्ट दे, शुष्क जिज्ञासा को शान्त करे।
पर्णक था धुन का पक्का। अगर पक्का न होता तो दुनियादार लोगों की तरह वह भी निन्यानवे के फेर में पड़ जाता। माया ने उसे हजारों बार ललचाया था पर वह अपरिग्रही भिक्षुक ही बना रहा। इसने बड़े-बड़े ज्ञानियों के सामने अपनी जिज्ञासा रखी ‘यदि किसी के पास अनावश्यक धन हो तो वह किसे देना चाहिए?, आखिर उसने समस्या को हल कर ही लिया। विभिन्न मतों का सार उसे यह मिला कि ऐसा धन किसी कंगाल को देना चाहिए।
भिखारी पर्णक को कहीं से एक पैसा मिल गया था। उसे पैसे की जरूरत थी नहीं। इसलिए वह अनावश्यक धन था। किसी को देना निश्चय ही था। कुपात्र को दान देकर वह पाप नहीं कमाना चाहता था। इसलिए सबसे बड़े कंगाल की तलाश में वह घर से निकल पड़ा। पैसे को कसकर उसने खूँट में बाँध लिया।
सबसे बड़े कंगाल की तलाश आसान न थी। देश-विदेश वह इसके लिए मारा-मारा फिरने लगा। मोटी बुद्धि जिसे गरीब मान लेती है सूक्ष्म बुद्धि उसे वैसा नहीं मान सकती। अमीर की दृष्टि में दिन भर श्रम करने वाला मजदूर गरीब है परन्तु अपने मन का वह भी बादशाह हो सकता है। पर्णक ने असंख्य धन होने, निराश्रित, अपाहिज, पीड़ित, जरूरतमंद, भूखे, रोग तथा अनेक कष्टों से ग्रस्त मनुष्य देखे पर उसकी दार्शनिक बुद्धि के अनुसार वे सबसे बड़े कंगाल नहीं थे। वे दुखी थे बेशक, परन्तु ईश्वर पर भरोसा रखे हुए थे। दूसरे कष्ट उन्हें थे पर तृष्णा की तीव्र दावानल उनके हृदय का नहीं जला रही थी।
इसी ढूँढ़ खोज में कई वर्ष बीत गये। पैसा उसके खूँट में बँधा हुआ था। हजारों योजन की यात्रा समाप्त हो चुकी थी। पर सबसे बड़ा कंगाल अभी नहीं मिला था।
एक दिन उसने देखा कि एक बड़ी भारी सेना जा रही है। हजारों घोड़े हाथी हैं, चरखियों पर तोपें चढ़ी हुई हैं, तीर तलवार से खच्चर लदे हुए हैं, हथियारों के भार से सिपाही झुके जा रहे हैं, रसद के छकड़े लदे जा रहे हैं। सोने-चाँदी के रथों में सेनापति बैठे हुए हैं। पर्णक को बड़ा कौतूहल हुआ। उसने एक व्यक्ति से पूछा यह सब कौन हैं? और कहाँ, किस निमित्त जा रहे हैं? उत्तर में उसे बताया गया- कान्वी नगरी का राजा ऋतुपर्ण विन्ध्य देश को जीतने के लिए जा रहा है। ऋतुपर्ण सत्रह सौ देशों का राजा है उसके पास अपार संपत्ति है। खजाने सोने से भरे हुए हैं। फिर भी और भूमि, धन, खजाने की इसे चाह है। अपनी इसी तृष्णा को शान्त करने के लिए हजारों निरपराध व्यक्तियों का खून बहाने के लिए यह राजा जा रहा है।
पर्णक को निश्चय हो गया कि यही सबसे बड़ा कंगाल है। इससे बड़ा जरूरतमंद और कौन होगा? इतना वैभव होते हुए भी जिसकी जरूरत पूरी नहीं होती वह सबसे बड़ा गरीब है। उसे वह व्यक्ति मिल गया जिसकी तलाश में वर्षों से फिर रहा था। वह चुपचाप सड़क के एक किनारे पर खड़ा हो गया।
राजा की पालकी जैसे ही उधर से निकली वैसे ही पर्णक ने वह पैसा ऋतुपर्ण के ऊपर फेंक दिया। एक भिक्षुक द्वारा अपने ऊपर पैसा फेंका जाता देख कर राजा को बड़ा क्रोध आया। पालकी रुकवाकर भिक्षुक को उसने पकड़वा बुलाया।
घटना साधारण सी थी। पर हुई थी राजा के साथ! सारी सेना में खलबली मच गई। कूच रुक गया। सेनापति दौड़कर महाराज के पास जमा हो गये मानो कोई भारी विपत्ति उन पर आई हो। बात की बात में दरबार लग गया। हाथ पाँव बंधा हुआ भिखारी अपराधी की तरह हाजिर किया गया। उसे अपने अपराध का कारण बताने की आज्ञा हुई थी।
पर्णक ने- पैसा मिलने, उसके लिए धर्माचार्यों की व्यवस्था लेने, इतने वर्षों तक सबसे बड़े कंगाल की तलाश करने, अनेक दुखियों में भी कंगाली का अभाव देखने का विस्तार पूर्वक वर्णन किया और कहा- राजन् जिसकी तृष्णा तृप्त नहीं होती वही सबसे बड़ा दीन है। आपके पास इतना बड़ा वैभव है फिर भी अपनी तृष्णा को शान्त न कर सके। आपकी दरिद्रता इतनी बढ़ गई कि दूसरों का रक्त बहाकर भी अपना उदर भरने को व्याकुल हो गये। मैंने सोचा कि यही व्यक्ति सबसे बड़ा कंगाल है और इसी को वह पैसा दे दूँ। तदनुसार वह पैसा आपके पास फेंक दिया।
राजा मानों नींद से चौंक पड़ा। उसकी आँखें खुल गई। क्या मैं सबसे बड़ा कंगाल हूँ? मेरे पास मेरी जरूरत पूरी करने योग्य भी सम्पत्ति नहीं है? क्या मैं इस भिखारी से भी भिक्षा लेने का पात्र हूँ? देश की संपदा किसलिए इकट्ठा करता फिर रहा हूँ? वह सब प्रश्न उसके मस्तिष्क में कोलाहल मचाने लगे। गंभीरता और मौन उसके चेहरे पर छा रहे थे। सारा दरबार सन्न बैठा हुआ था।
राजा ने भिखारी को मुक्त करने की आज्ञा दे दी और सेनापति को आदेश दिया कि सेना को वापिस लौटा लिया जाय।