दुःख का कारण

September 1940

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री स्वामी विवेकानन्द जी)

संसार में ‘दो’ और ‘लो’ का अविरल प्रवाह बह रहा है। त्यागो और प्राप्त करो का सिद्धान्त अकाट्य है। जो तुम्हारे पास है उसे खुशी-खुशी दूसरों को दोगे तो तुम्हें ईश्वर भरपूर देगा। लेकिन जब तुम प्राप्त वस्तुओं को मुट्ठी में बाँधकर कहते हो ‘मैं नहीं दूँगा’ तब कुदरत तुम्हारे गाल पर चाँटा जमाती है और गाल पकड़ कर उस सबको उगलवा लेती है जिसे देने की बिलकुल इच्छा नहीं थी। सूरज को देखो वह पानी सोख कर इकट्ठा करता है पर उसे फिर बरसा कर पृथ्वी को दे देता है। प्रकृति का नियम है ‘त्याग‘। तुम लालच करके बहुत जोड़ना चाहते हो फलस्वरूप पिटना पड़ता है। पिटने का दर्द होता है उसी को लोग ‘दुख’ कहते हैं।

संसार की प्रत्येक वस्तु में परमात्मा का स्वरूप देखते रहने से हृदय से मोह अपने आप ही आगंडडडडड जाती है। और मोह के चले जाने से हृदय की अशान्ति जाती रहती है तथा सच्चिदानन्द का भंडार खुल जाता है।

(श्चड्डद्दद्ग द्वद्बह्यह्यद्बठ्ठद्द)

मृत्यु के बाद-


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118