(श्री नारायण प्रसाद तिवारी ‘उज्ज्वल’ काल्हीवाड)
यदि प्रकृति देवी की अवहेलना न की जावे तो संसार-निरीक्षण हमें बड़े मनोहर दृश्य दिखाता है। नदियाँ बहकर बतलाती हैं कि हमारा जीवन भी एक दिन बह जावेगा। चिड़ियाँ उड़ कर शिक्षा देती हैं कि यह जीवन किसी दिन उड़ जावेगा। प्रकृति देवी में कितनी सुन्दरता है, बहते हुए झरनों में कितना सौंदर्य है, उदयाँचल पर सूर्य की शोभा दर्शनीय है। बात यह है कि प्रकृति ‘सौंदर्य सार समुदाय निकेतन’ है, किन्तु मनुष्य भ्रम और भ्रान्ति का दास है उसका चंचल मन रुई के फोहे से भी हलका होकर काम क्रोधादि का दास बना हुआ है।
मनुष्य नवीनता का उपासक है, जीवन में नित्य प्रति होने वाली घटनायें चाहे वे कितनी ही भली क्यों न हों उनसे रोचकता घट जाती है। एक दिन मेरे मित्र से साँसारिक विषय की बातें हो रही थी प्रश्न हुआ कि पुरुष बड़ी संतान की अपेक्षा छोटी पर तथा पुत्र की अपेक्षा नाती पर क्यों अधिक प्रेम करना है, मेरा उत्तर था ‘मनुष्य नवीनता का उपासक है’।
प्रकृति देवी ने चौरासी लाख योनियों में भ्रमण कर हमें उन्नत योनि प्रदान की है, मानव जीवन प्राप्त करने के साथ मनुष्य ज्ञान का अधिकारी हो जाता है, इस दशा में मानव प्राणी का यह अपना काम है कि वह उत्थान की ओर जाय या पतन की ओर। यहीं से जीव के लिये कर्म की मीमाँसा आरंभ होती है।
कर्म दो प्रकार का है (1) इहलौकिक (2) पारलौकिक। किसी भी कर्म के पहले मनुष्य के हृदय में विचार उत्पन्न होता है; क्योंकि मन कल्पनाओं का पुञ्ज है। मन की किसी भी कल्पना को पूर्ण करने के लिये कर्म में निरत होना पड़ता है तथा उस कर्म को अन्तिम ध्येय तक पहुँचाने के लिये साधना की आवश्यकता है। मकान बनवाना है, कुँआ खुदवाना है, लेख लिखना है, इन सब बातों के लिये मन में विचार उत्पन्न होकर उस समय के कर्म की साधना करना पड़ती है। जीवन भी एक बड़ी साधना है, प्रेम साधन, भक्ति साधन, मोक्ष साधन, योग साधन इत्यादि अनेक हैं।
कोई भी कर्म करने के पहले उसका कारण भी अवश्य हुआ करता है। इहलौकिक कर्म के लिये कारण स्पष्ट है कि मनुष्य नवीनता का उपासक है। आज जिस एक वस्तु की इच्छा मन में उठकर उसकी प्राप्ति के लिये साधना की जाती है, कल उससे अनिच्छा भी हो सकती है; और भौतिक वस्तु की प्राप्ति के प्रायः यही फल हुआ करते हैं। मनुष्य वासनाओं का दास है इसी से भौतिक अथवा इहलोक साधना को और उसका झुकाव अधिक रहता है, किन्तु व्यावहारिक साँसारिक विभूतियों में भय है इसी से ब्रह्म ज्ञानियों ने संसार की नश्वर विभूतिओं को विभूतियाँ न कह कर भूति मात्र कहा है जिससे भौतिक शब्द की रचना हुई है। साँसारिक वैभव ‘बहुत कुछ’ है किन्तु ‘सब कुछ’ नहीं ढ्ढह्ल द्बह्य द्वह्वष्द्ध ड्ढह्वह्ल ठ्ठशह्ल ड्डद्यद्य. इस वैभव से मित्र, दास, दासी, रासी, राजपाट बहुत कुछ प्राप्त हो सकता है, किन्तु प्रेम, स्वास्थ्य, शाँति और सुख नहीं मिल सकता, हृदय की शाँति के लिये दूसरी विधि की खोज करना होगा। कितने ही ऐसे व्यक्ति मिलेंगे जो साँसारिक सम्पत्ति रहते हुए भी उस शाँति, सुख और प्रगाढ़ निद्रा के लिये लालायित रहते पाये जाते हैं जिसे सड़क के किनारे सोने वाले अनुभव करते हैं। साँसारिक सम्पत्ति गगनचुम्बी अट्टालिम्र बना सकती है किन्तु प्रत्येक मनुष्य को चाहे वह धनिक हो या दरिद्री अटूट समाधि के लिये 6 फुट जमीन से अधिक आवश्यकता न होगी।
रात दिन के आघात, दुख, सफलता और निराशाओं के कारण जब मानव हृदय रो पड़ता है, उसे अपनी शक्ति यों के ऊपर अविश्वास हो जाता है, एवं संसार में उसे अपना कोई भी दिखलाई नहीं पड़ता है उस समय वह अशरण शरण मंगलमय भगवान् की ओर आकर्षित होता है और संसार में रहते हुए भी संसार की चहल-पहल से दूर अपने जीवन पक्ष का निर्माण किसी अन्य दिशा में करने की आकाँक्षा करते हुए साधन पथ बदल देता है उस समय इहलौकिक ध्येय न होकर पारलौकिक ध्येय हो जाता है बस यही पारलौकिक कर्म का कारण है।
पृथक कर्म के लिये पृथक 2 साधनायें हुआ करती हैं। चाहे जिस साधना से चाहे जो साध्य प्राप्त नहीं होता। इह लोक अथवा भौतिक प्राप्ति के लिये संग्रह साधना होती है, पारलौकिक अथवा मोक्ष प्राप्ति के लिये त्याग साधना होती है।
कोई भी कर्म बिना साधना के अशक्य है किन्तु साधना के लिये चाहे वह इहलौकिक हो अथवा पारलौकिक, मन में एक स्थायी शाँति, और निश्चल नीरवता की आवश्यकता है, अन्यथा संभव है कि किसी अंश में सफलता प्राप्त हो किन्तु स्थायी लाभ कुछ भी प्राप्त न होगा। विशेषकर पारलौकिक साधना के लिये बहुत अधिक शाँति तथा नीरवता की आवश्यकता है, क्योंकि “एकै साधै सब सधै सब साधे सब जाय।” मेरा लक्ष्य केवल पारलौकिक साधना की ओर है जिससे हृदय की सच्ची शाँति प्राप्त हो।
मैं यह लिख चुका हूँ कि साधना कर्म के लिये पहले विचार उत्पन्न होते हैं अतएव विचारों पर नियंत्रण होना चाहिये, जिसका विचारों पर नियंत्रण नहीं है, यदि वह अपने विचारों का अनुमन्ता और स्वामी नहीं है तो वह मनुष्य पूर्ण मनोमय नहीं हो सकता।
यह बात अवश्य है कि आरंभ में शाँति और स्थिरता चलायमान रहती है। स्थायी रूप से उन्हें लाने के लिये दीर्घकाल की आवश्यकता होती है, किन्तु इससे अधीर नहीं होना चाहिए। यदि तुम अपने विचार में सच्चे हों तो अवश्यमेव सफलता प्राप्त होगी। अपनी कमजोरियों और कुप्रवृत्तियों को छुपाने का प्रयत्न करने की अपेक्षा उन्हें निकाल फेंकने का दृढ़ विचार करना चाहिए। जिसे पारलौकिक साधना अथवा आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करना है उसे सबसे पहले अपने हृदय में भगवान का मन्दिर बनाकर उनकी शरण में अन्य गौण साधन करने होंगे।
“कर्मण्येवाऽधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।” गीता के इस महासूत्र को तनिक भी न भूलते हुए फल के लिये अधीर न होना चाहिये।
साधना में अनेक प्रकार की विरोधी परिस्थितियाँ उपस्थित हुआ करती हैं किन्तु ऐसी परिस्थितियों के आने पर (जो एक प्रकार की परीक्षा है) विचलित न हो धैर्य से उनका सामना करना चाहिए। क्योंकि दुःख और कष्ट में यदि तुमने समता बनाये रखी तो समझ लो कि साधना के एक महत्वपूर्ण अंग में फलीभूत हो चुके! क्योंकि अनुकूल अवस्था में सम और स्थिर होना तो मामूली बात है किन्तु विपरीत अवस्था में ही मनुष्य की स्थिरता, शान्ति और समता की परख हो सकती है।
जो विचार निश्चित उद्देश्य और प्रबल कामना के साथ प्रेरित होते हैं वे उतनी ही तीव्रता के साथ अभीष्ट स्थान को पहुँचते हैं अर्थात् विचार की शक्ति उस बल पर अवलंबित है जिस बल के साथ वह प्रेरित किया जावे।
(क्रमशः)