जिसने अपना अविनाशी, अजन्मा, अजर-अमर स्वरूप जान लिया वह ईश्वर से दूर नहीं रहता।
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उच्च सत्कर्म की परख कार्य की अधिकता से नहीं वरन् करने वाले की हार्दिक भावनाओं, प्रेम और श्रद्धा से करनी चाहिये।