साधकों का पृष्ठ

September 1940

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(जो साधक हमारी बताई हुई विधियों से विभिन्न प्रकार के अभ्यास कर रहे हैं। वे अपने अनुभव संक्षेप में प्रकाशनार्थ भेजें। जिनसे दूसरे साधक भी लाभ उठा सकें। संपादक)

(1)

“मैं क्या हूँ” प्राप्त हुई। ऐसी अद्भुत पुस्तक अब तक मेरे देखने में नहीं आई थी। साधन आरम्भ नहीं किया है पर पुस्तक पढ़ते ही एक नवीनता का मुझ में संचार हुआ है। मैंने प्रण किया है कि इसे 101 बार पढूँगा तब अभ्यास आरम्भ करूंगा। ऐसे ग्रन्थ रत्न प्राप्त करके मैं अपने को धन्य मानता हूँ।

-श्रीकान्त शास्त्री, नारायणपुर

(2)

आज्ञानुसार कार्य आरम्भ किया। दूसरे ही दिन ऐसा प्रतीत हुआ मानो फोटो रूपी टार्च मेरे शरीर में बाहर-भीतर लाइट दे रहा है और उसी समय से मेरे भ्रम का अन्त होना शुरू हो गया। प्रभु की असीम कृपा से आत्म साक्षात्कार हुआ, उस समय जो आनंद प्रतीत हुआ था वह अकथनीय है।

-बालमुकुन्द, इटारसी

(3)

रात को मुझे तो भयंकर स्वप्न आते थे अब नहीं आते। न वे मूर्तियाँ ही नजर आती हैं जिनके डर से मैं दिन में कई बार घिग्घी बाँध कर चिल्ला पड़ता था। इस महीने में सिर्फ दो बार दौरा हुआ है। अब पसीना खूब आता है और प्यास कम हो गई है। साधना में दिन-प्रतिदिन मेरी श्रद्धा दृढ़ होती जा रही है।

-मोथाराम पीतमराम व्यास, कोटा

(4)

मेरी स्त्री दो सप्ताह से जिद कर रही है कि इस साधना को मुझे भी कराओ। पर मैं आपकी आज्ञा के कारण किसी को न बताने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हूँ। मेरे स्वभाव में एकदम तब्दीली हो जाने की वजह से मिलने वाले ताज्जुब में है और स्त्री तो हैरत में है कि तुम क्या हो गये हो। यह बात मैं अपने पहले खत में अर्ज़ कर चुका हूँ कि मेरा मिज़ाज बहुत तेज है। जरा सी बात पर गुस्सा आ जाता है। घर वालों को यह बुरा लगता था पर वे डर के मारे कुछ कहते न थे क्योंकि कमाने वाला और घर का मालिक मैं ही था। स्त्री और बच्चे अक्सर पिट जाते थे इसलिए वे मुझ से अक्सर दूर भागते रहते थे। अब दो हफ्ते से उसका डर भी काफी दूर हो गया है। बच्चे गले से लिपटे रहते हैं और स्त्री हर वक्त यही जिद किये रहती है ‘इस जादू को तो मुझे भी सिखाओ।’

-साँवलदास मीना, गुरुदासपुर

(5)

‘मैं क्या हूँ’ के अनुसार अभ्यास करते हुये एक महीना बीत गया। अब मैं बहुत घबराने लगा हूँ। हमारा व्यापार ऐसा है जिसमें जो कुछ नफा है चालाकी का है। जब पुराने अभ्यास के अनुसार लेन-देन करने बैठता हूँ तो हाथ भारी हो जाते हैं और कुछ करते धरते नहीं बनता। इस महीने 45 रु. का घाटा हुआ है। बड़े पेशोपेश में हूँ या तो अभ्यास छोड़ना पड़ेगा या यह व्यापार।

राम नारायण दुबलिस, पटियाला

(6)

अब विधवा जीवन भार नहीं रहा। पढ़ी-लिखी होने के कारण अनेक बातें सूझती थीं। इस साल तो मैंने निश्चय कर लिया था कि पुनर्विवाह करूंगी। आपकी पत्रिका छह महीने से पढ़ने को मिल जाती है। उसने मेरे विचार बिलकुल बदल दिये हैं। अब पुनर्विवाह की इच्छा बिलकुल त्याग दी है। आपने सूर्य किरणों द्वारा चिकित्सा करने की जो पत्र व्यवहार द्वारा शिक्षा दी है। उसमें मुझे बड़ी सफलता मिल रही है। स्त्री और बच्चों का इलाज करती हूँ। दो महीने से 35 बीमार अच्छे हुये हैं। मैंने किसी से कुछ नहीं माँगा पर बिना माँगे भेंट स्वरूप 60 रु. मुझे मिले हैं। दो मास में इतनी आमदनी मेरे लिये बहुत है। अब मुझे अपना जीवन भार नहीं मालूम पड़ता। आपके चरण..............।

-रूपकुमारी कछवाहा, सिकन्दराबाद


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