जीवन-पहेली

September 1940

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(श्री लक्ष्मीनारायण जी गुप्त, मौदहा)

प्रत्येक व्यक्ति संसार की एक न एक पहेली सुलझाने में नित्य व्यस्त रहते हैं। कोई उलझे हुए मामले-मुकदमों को सुलझा लेना चाहते हैं, किन्हीं को पुत्र पौत्रों की (पारिवारिक) पहेली बेचैन किये है, कोई अपनी व्यापारिक उलझनों को दूर करने में ही दिन काटते हैं, किसी को अपने मान बड़ाई के किले को ही सुदृढ़ बनाने की लगन हैं। इन बातों के अतिरिक्त भी अनेक ऐसी पहेलियाँ हैं जो किसी न किसी रूप में सब के सन्मुख हैं और जन समुदाय उन्हें सुलझाने में अपनी सम्पूर्ण शक्तियों का ह्रास कर रहा है। परन्तु फिर भी सफलता दूर ही रहती है। यथार्थ में जीवन ही सब से बड़ी पहेली है यदि तमाम पहेलियों को त्याग कर जीवन का पथ ही सुलझा लिया जाय तो फिर उलझन ही क्या बाकी रहे?

न्यायी सभी होना चाहते हैं। दूसरे के मामले का फैसला कर देना आसान है, किन्तु अपना न्याय अपने आप कर लेना बहुत कठिन है। यदि अपना ठीक न्याय अपने ही हृदय से कर लिया जाय तो फिर दूसरों से अपने किये हुए भले-बुरे कर्मों के इन्साफ कराने की आवश्यकता ही क्या है?

आपने उपकार करना सीखा है? कैसे? अपने अहित होने पर भी दूसरों का हित होने देना त्याग पूर्ण उपकार है और इसी में शान्ति है, यह सभी जानते हैं। परन्तु यह शान्ति केवल उपदेश प्राप्त कर लेने से ही नहीं मिल सकती स्वयं इस पथ पर चलने से शान्ति का अनुभव प्राप्त हो सकता है।


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