साधना की गयी पर सिद्धि नहीं मिली। तप तो किया गया, पर तृप्ति नहीं मिली। अनेकों साधकों की विकलता यही है। लगातार सालों-साल साधना करने के बाद वे सोचने लगते हैं, क्या साधना का विज्ञान मिथ्या है? क्या इसकी तकनीकों में कोई त्रुटि है? ऐसे अनेकों प्रश्न कंटक उनके अन्तःकरण में हर पल चुभते रहते हैं। निरन्तर की चुभन से उनकी अन्तरात्मा में घाव हो जाता है। जिससे वेदना रिसती रहती है। बड़ी ही असह्य होती है चुभन और रिसन की यह पीड़ा। बड़ा ही दारुण होता है यह दर्द।
महायोगी गोरखनाथ का एक युवा शिष्य भी एक दिन ऐसी ही पीड़ा से ग्रसित था। वेदना की विकलता की स्पष्ट छाप उसके चेहरे पर थी। एक छोटे से नाले को पार करके वह एक खेत की मेंड़ पर हताश बैठा था। रात प्रायः बीत गयी थी। खेतों पर सुबह का सूरज फैलने लगा था। पास से गुजरती बैलगाड़ी की आवाज सुनकर चाँदनी के फूलों सी बगुलों की पात सूरज की ओर उड़ गयी। इनकी ओर उसने बड़ी ही निराश नजरों से देखा। तभी उसे पास के खेत से ही गोरखनाथ आते दिखाई दिये।
उनके चरणों पर सिर रखकर प्रणाम करते हुए उसने पूछा- गुरुदेव! मेरी वर्षों की साधना निष्फल क्यों हुई? भगवान् मुझसे इतना रूठे क्यों हैं? महायोगी हँसे और कहने लगे-पुत्र! कल मैं एक बगीचे में गया था। वहाँ कुछ दूसरे युवक भी थे। उनमें से एक को प्यास लगी थी। उसने बाल्टी कुएँ में डाली, कुआँ गहरा था। बाल्टी खींचने में भारी श्रम करना पड़ा। लेकिन जब बाल्टी लौटी तो खाली थी। उस युवक के सभी साथी हँसने लगे।
मैंने देखा-यह बाल्टी तो ठीक मनुष्य के अन्तःकरण जैसी है इसमें छेद ही छेद हैं। बस यह कहने भर को बाल्टी थी, उसमें छेद ही छेद थे। बाल्टी कुएँ में गयी, पानी भी भरा, पर सब बह गया। वत्स! साधक के मन की यही दशा है। इस छेद वाले मन से कितनी ही साधना करो, पर छेदों के कारण सिद्धि नहीं मिलती। इससे कितना ही तप करो पर तृप्ति नहीं मिलती। सिद्धि और तृप्ति चाहिए तो पहले मन के छेदों को मिटाओ। अपने दोष, दुर्गुणों को दूर करो।
पहले संयम-तब साधना -फिर सिद्धि। यही साधना से सिद्धि का मर्म है। अपने मन की बाल्टी ठीक हो तो साधना सिद्धिदायी होती है। मन की बाल्टी में छेद हो तो तप तो खूब होता है, पर तृप्ति नहीं मिलती। भगवान् कभी भी किसी से रूठे नहीं रहते। बस साधक के मन की बाल्टी ठीक होनी चाहिए। कुआँ तो सदा ही पानी देने के लिए तैयार है। उसकी ओर से कभी भी इन्कार नहीं है।