गाँधी जी के आश्रम में सफाई और व्यवस्था के कार्य हर व्यक्ति को अनिवार्य रूप से करने पड़ते थे। एक समाज को समर्पित श्रद्धावान बालक उनके आश्रम में आकर रहा। स्वच्छता−व्यवस्था के काम उसे भी दिए गए। उन्हें वह निष्ठापूर्वक करता भी रहा। जो बतलाया गया, उसे जीवन का अंग बना लिया।
जब आश्रम निवास की अवधि पूरी हुई तो गाँधी जी से भेंट की और कहा, “बापू, मैं महात्मा बनने के गुण सीखने आया था, पर यहाँ तो सफाई व्यवस्था के सामान्य कार्य ही करने को मिले। महात्मा बनने के सूत्र न तो बतलाए गए, न उनका अभयास कराया गया।”
बापू ने सिरे पर हाथ फेरा, समझाया, कहा, “बेटे, तुम्हें यहाँ जो संस्कार मिले हैं, वे सब महात्मा बनने के सोपान हैं। जिस तन्मयता से सफाई तथा छोटी−छोटी बातों में व्यवस्था−बुद्धि का विकास कराया गया, वही बुद्धि मनुष्य को महामानव बनाती है।”
गाँधी जी ने इसी प्रकार छोटे−छोटे सद्गुणों के माहात्म्य समझाते हुए अनेकों लोकसेवियों के जीवनक्रम को ढाला, उन्हें सच्चे निरहंकारी स्वयंसेवक के रूप में विकसित किया।