55 चेतना की शिखर यात्रा−15 - बलिहारी गुरु आपुनो−3

May 2003

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ऐतिहासिक वसंत (18−1−1926) के ब्राह्ममुहूर्त में कबीर, समर्थ गुरु रामदास एवं फिर रामकृष्ण परमहंस का वृत्ताँत दृश्यरुप में श्रीराम को उनकी अदृश्य सूक्ष्मधारी सत्ता द्वारा दिखाया गया। उसी क्रम में रामकृष्ण परमहंस के जीवन से जुड़ी कुछ घटनाएँ।

विभिन्न साधना−परंपराओं का अभ्यास और उनके शिखर तक पहुँचना रामकृष्णदेव का अनूठा प्रयोग था। राम की उपासना शुरू की तो हनुमान की तरह व्यवहार करने लगे। राम−रघुवीर कहते हुए वे वृक्षों पर चढ़ जाते, फल तोड़ते, दाँत से काटते और चखकर फेंक देते। प्राणिमात्र में और कण−कण में राम के दर्शन की अवस्था में पहुँच जाने के बाद साधना को विराम दिया। एक बार सखीभाव से श्रीकृष्ण की आराधना करने लगे। इस भाव से साधना करने वाले साधक अपने आपको श्रीकृष्ण की सहेलियाँ, गोपियाँ मानते हैं और स्त्रियों की तरह ही रहते हैं। रामकृष्ण भी उसी तरह साधना करने लगे। सखीरुप धारण करने के लिए उन्होंने केश रखवाए। वेणी गूँथने लगे। नाक में बेसर, आँखों में अंजन, माथे पर सिंदूर, बिंदी और होठों पर लाली लगाने लगे। साधना की प्रगाढ़ अवस्था में वे पुकारने लगते, कहाँ है ललिता, कहाँ है विशाखा? मुझ पर दया करो। मैं अति दीन−हीन हूँ। तुम्हारी दया के बिना मैं राधिका जी का दर्शन नहीं कर सकूँगी और राधिका जी के बिना श्रीकृष्ण तक नहीं पहुँच पाऊंगी।

सखी संप्रदाय की साधना करते हुए रामकृष्णदेव के शरीर में स्त्रियोचित परिवर्तन होने लगे थे। उनकी आवाज मधुर और कोमल होने लगी। आवाज सुनकर उन्हें कोई भी पहचान नहीं सकता था। कुछ दिन बाद उनकी चाल भी बदल गई। वक्ष पर स्त्री जैसे उभार दिखाई देने लगे और पाँव किसी तन्वंगी नारी की तरह सँभल−सँभलकर उठते थे। साधना की यह स्थिति प्रमाण है कि तन्मय होकर आराधना करने पर व्यक्ति त्व में आमूलचूल परिवर्तन आने लगता है। यहाँ तक कि शरीर भी उसी के अनुसार ढलने और बदलने लगता है। सखीभाव की साधना को विराम देने के महीनों बाद ठाकुर सहज स्थिति में पहुँचे।

भक्ति मार्ग के बाद वेदाँत की साधना शुरू की। उस क्षेत्र में ‘सोऽहम्’ और ‘अहं ब्रह्मास्मि’ रूप की सिद्धि तक पहुँचे। ताँत्रिक, बंगला, बाउल, वैष्णव और शाक्त आदि संप्रदायों का मार्ग भी अपनाया। विभिन्न संप्रदयों, पंथों की साधना के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि स्वरूप से मार्ग भले ही अलग हों, तात्त्विक दृष्टि से किसी में कोई अंतर नहीं है। खालास पंथ की दीक्षा लेकर उसका मर्म समझा। एक दिन विचार आया कि हिंदू−मूसलमान में क्या भेद है, यह भी मालूम किया जाए। अपनी इष्ट−आराध्य भवानी से अनुमति माँगी, माँ ने अनुमति दे दी। टमटमा गाँव में एक सूफी साधक रहता था, उससे दीक्षा ली और साधना की विधि सीखी। तीन दिन साधना के बाद ही भाव बदल गए। उनके अंतः करण से हिंदू का भाव विलुप्त हो गया। उन्होंने मंदिर में जाना बंद कर काली का प्रसाद नहीं खाया। साधना के दिनों में किसी ने कहा कि इस्लाम के अनुसार जो काफिरों का वध करेगा, वही स्वर्ग में सुख से रहेगा। तुम भी क्या काफिरों का वध करोगे? रामकृष्ण परमहंस ने कहा, “काफिर बाहर नहीं रहते, वे हमारे भीतर ही हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि ही हमारे भीतर रहने वाले विजातीय तत्त्व हैं। उनका विनाश करने से ही अल्लाह की मेहरबानी होती है। विद्या और शक्ति ही मनुष्य को सुख देती है। उसके सिवा कोई सुँदरी या अप्सरा नहीं है, जो मनुष्य को निरंतर अगाध सुख देती हों।”

ईसाई धर्म की साधना−उपासना का मार्ग भी अपनाया। सब धर्मों और साधना−परंपराओं का मर्म जान−समझ लेने के बाद वे अपने स्वभाव में स्थिर हो गए। मुक्त और सिद्ध आत्माओं को वैसे अपना कोई स्वतंत्र स्वभाव नहीं होता। वे परमात्मचेतना से इस तरह ओत−प्रोत हो जाते हैं कि उनकी अपनी स्वतंत्र सत्ता कहीं दिखाई ही नहीं देती। जिस स्थिति और स्तर का साधक आता है, उसी के अनुरूप वे दिखाई देने लगते हैं। दर्पण की तरह, स्फटिक से बने विग्रह की भाँति हो जाते हैं, जो सामने उपस्थित दृश्य या वर्ण को ही अपने स्वरूप में प्रतिबिंबित करने लगता है।

तोतापुरी से सीखी साधना

रामकृष्णदेव तब विविध साधना धाराओं को ही परख रहे थे। पूजा की कोठरी में बैठे श्रीराम को ये दृश्य जीवंत घटनाओं की तरह दिखाई देते हैं। दक्षिणेश्वर मंदिर में भिन्न−

56 भिन्न संप्रदायों के साधक, संन्यासी, फ कीर, पादरी आदि आ रहे हैं। किसी दिन सात सौ नागा साधुओं के प्रमुख तोतापुरी नामक संन्यासी आते हैं। चारों ओर उनकी बड़ी ख्याति है। पौष महीने में गंगासागर से स्नान कर लौटते हुए वे दक्षिणेश्वर में ठहरते हैं और रामकृष्णदेव को देखकर पूछते हैं, “तुम कुछ साधना करोगे?”

“माँ कहेगी तो जरूर करेंगे।” रामकृष्ण ने बालसुलभ सरलता से कहा। तोतापुरी ने समझा कि वे अपनी जननी माता की अनुमति चाहते हैं, शायद। कह दिया, जाओ पूछ आओ। रामकृष्ण काली के सामने बैठकर पूछने लगे तो उधर से उत्तर आया, कर लो। फिर पूछा, “कौन सिखाएगा साधना?”

माँ ने उत्तर दिया, “जो तुझे वेदाँत सिखाने आया है, वही साधना भी सिखाएगा।” स्वामी रामकृष्ण ने महंत तोतापुरी से सारा संवाद ज्यों−का त्यों कह सुनाया। वे हँसे, फिर कहा, “हमसे उपदेश ग्रहण करना है तो संन्यासी बनना पड़ेगा।”

रामकृष्ण उसी सहजता से पूछते हैं, “संन्यासी होने के लिए क्या करना पड़ेगा।” कोठरी में अपनी मार्गदर्शक सत्ता के दिव्य सान्निध्य में बैठे श्रीराम अनुभव कर रहे थे, जैसे रामकृष्ण के रूप में वे स्वयं ही यह संवाद कर रहे हों। तोतापुरी जी संन्यास के बारे में समझाते हैं, उसके लिए श्राद्ध, होम, तर्पण आदि करना पड़ेगा। भगवा वस्त्र पहनना होगा और निरंतर विचरण करते रहना पड़ेगा। रामकृष्ण ने कहा, “सब स्वीकार है, लेकिन भगवा पहने बिना संन्यासी हुआ जाए, ऐसा कुछ कीजिए। मैं यह स्थान छोड़कर अन्यत्र नहीं जा सकता। मेरी माँ जीवित है। अब उनका और कोई पुत्र नहीं, इसलिए उन्हें छोड़ा नहीं जा सकता।”

तोतापुरी ने स्वीकार कर लिया। संन्यास की तैयारी होने लगी। शिखा−सूत्र, कं ठी, माला आदि चिह्नों का विसर्जन हो गया। चिता−आरोहण और श्राद्ध−तर्पण की क्रियाएँ भी संपन्न कर ली गइ, सर्वस्व त्याग का व्रत ग्रहण कर लिया। दीक्षा के बाद तोतापुरी अपने शिष्य को उपदेश देते हैं और समाधि में ले जाने का प्रयत्न करते हैं। स्फटिक की माला से एक मनका अलग निकाला और रामकृष्णदेव को पद्मासन लगा लिया। तोतापुरी ने रामकृष्ण की आँखों के बीच भौंहों के मध्य स्फटिक का स्पर्श किया। उसे कु छ जोर से दबाया, थोड़ा सा दबाव पड़ना था कि रामकृष्णदेव की समाधि लग गई। वे अचेत से हो गए। नाड़ी की गति और हृदय क ी धड़कन यथावत चल रही थी, लेकिन उन्हें कोई बोध नहीं था।

यह अवस्था देखकर तोतापुरी थोड़े डरे। उन्हें लगा कि रामकृष्ण कहीं शरीर न छोड़ दें। बड़ी सावधानी से उन्होंने साधक की देखभाल की। एक दिन बीत गया, दूसरे दिन की शाम भी ढल गई और तीसरे दिन की सुबह हुई, तब भी रामकृष्ण की स्थिति में कोई अंतर नहीं आया। उन्होंने अपने प्रमुख शिष्यों से कहा, तीन दिन तक यदि साधक अपनी सहज अवस्था में नहीं आता तो कठिन हो जाता है। शरीर उस आत्मचेतना को वापस धारण करने योग्य नहीं रह जाता।

बहुत आगे हो ठाकुर

“लेकिन गुरुदेव, रामकृष्ण के शरीर में तो कोई विकार नहीं है।” तोतापुरी के उन्हीं शिष्य ने कहा, “श्वास−प्रश्वास उसी तरह चल रे हैं। नाड़ी की गति भी ठीक है। शरीर में कोई विकार नहीं दिखाई देता। “ तोतापुरी को चिंता नहीं थी, लेकिन वे विस्मय−विमुग्ध थे। कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या करें? सिद्ध गुरु अपने शिष्यों को समाधि से वापस लाने के जो भी उपाय कर सकते, कर लिए। कोई अंतर नहीं आया। थक−हारकर वे शाँत बैठ गए। यकायक उन्हें कुछ सूझा और अपना मुँह ठाकुर के कान तक ले गए और कहा, “वह आ गया है रे, जिसकी तुम्हें प्रतीक्षा है। “

सुनना था कि रामकृष्ण इस तरह उठकर बैठ गए जैसे किसी ने झकझोर दिया हो। वे आतुर−व्याकुल हो उठे और पूछने लगे, “कहाँ है वह? कहाँ है? “ तोतापुरी ने कहा, “पहुँच ही रहा होगा। “ इसके बाद वे बोले, “तुम तो मुझसे बहुत आगे हो ठाकुर। तुम महापुरुष हो। चालीस वर्ष तक कठोर साधना करके भी मैं जो स्थिति प्राप्त नहीं कर सका, एक ही दिन में तुमने उसे उपलब्ध कर लिया। तुम धन्य हो।” तोतापुरी वेदाँती थे। वे मूर्तिपूजा को नहीं मानते थे। अपने शिष्य की सिद्ध अवस्था से चमत्कृत होकर उन्होंने दक्षिणेश्वर मंदिर में स्थित माँ काली की प्रतिमा को प्रणाम किया।

जो संदेश देकर तोतापुरी ने रामकृष्ण को समाधि से जगाया था, वह नरेंद्र के बारे में था। ‘नरेंद्रनाथ दत्त’ जो बाद में स्वामी विवेकानंद हुए। जिस दिन वे संसर्ग में आए, उसी दिन रामकृष्ण ने उन्हें सीने से लगा लिया था। फूट−फूटकर रोए थे, जैसे वर्षों से गुम हुई संतान को पाकर माता पिता विह्वल हो उठते हैं। नरेंद्रनाथ तब रोजगार की तलाश में था। मुमुक्षा का आवेग अपने चरम पर था। वह क्षुधा से भी ज्यादा प्रचंड हो उठता था। तृप्ति के लिए वे साधु−संतों के यहाँ भटकते रहते। रामकृष्ण के यहाँ पहुँचे और गुरु ने उन्हें देखते ही अंक में भर लिया तो लगा कि खोज पूरी हुई।

क्या ईश्वर को देखा है

नरेंद्र ने पूछा, “आपने ईश्वर को देखा है क्या?” जिस वेग से सवाल आया था, उससे भी प्रचंड वेग से उत्तर मिला, “तुम देखना चाहते हो क्या?” नरेंद्र ने अब तक कितने ही संन्यासियों और योगियों से यही प्रश्न पूछा था। इतने विश्वास और वेग के साथ किसी ने जवाब नहीं दिया। कोई कहता, “हाँ देखा है, लेकिन उस हाँ में विश्वास का बल नहीं होता था।” कोई कहता, अगर कहें कि देखा है तो यह अपनी स्थिति का ढिंढोरा पीटना हुआ। यदि मना करते हैं तो उत्तर गलत हो जाएगा। इसलिए कुछ नहीं कहना ही ठीक है। तुम अपनी जिज्ञासा बताओ, हम समाधान देने का प्रयास करेंगे।

कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर के पिता महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर से भी उन्होंने यही प्रश्न पूछा था। महर्षि देवेंद्रनाथ नदी की धारा में बजरे पर विश्राम कर रहे थे। नरेंद्रनाथ धम्म से नदी में कूदे और तैरकर बजरे पर आ गए। आते ही उन्होंने महर्षि से ईश्वर के बारे में पूछा। नरेंद्रनाथर के प्रश्न से वे हड़बड़ा गए थे। उन्हें लगा था जैसे कोई काँलर पकड़कर पूछ रहा हो। नरेंद्र ने अपनी उत्कंठा को पूरी तरह व्यक्त करते हुए ही पूछा था। उसमें डराने जैसा कोई ढंग नहीं था, लेकिन उनकी उत्कंठा ने ही योगी को अचकचा दिया था। वह कहने लगे, “पहले बैठो तो सही। शाँत होकर बैठो। मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देता हूँ।” इस व्यवहार ने नरेंद्रनाथ को आभास करा दिया कि प्रश्न का उत्तर वहाँ नहीं है। वे यह कहकर वापस चले आए कि अब आपको कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। मुझे उत्तर मिल गया है।

सिद्ध योगियों के व्यवहार और रुख से ही अपने प्रश्न का भविष्य समझ लेने वाले नरेंद्रनाथ की यात्रा रामकृष्ण परमहंस के सान्निध्य में पहुँचकर पूरी हुई। उन्होंने नरेंद्र से कहा, “जो माँगना है, अपनी माँ से ही माँग लेना। मुझसे कुछ मत कहना।” रामकृष्ण ने जब यह बात कही थी, तब नरेंद्र के मन में अपने परिवार के निर्वाह की चिंता घुमड़ रही थी। गुरु के कहने पर वे मंदिर में माँ की प्रतिमा के पास गए तो सही लेकिन कुछ माँगते नहीं बना। माँ के मनोहारी रूप ने उन्हें इतना विभोर कर दिया कि वे माँगने की बात ही भूल गए। बिना कुछ कहे वापस चले आए। रामकृष्ण ने उन्हें दो बार और मंदिर में भेजा। दोनों बार वे फिर वापस आ गए। इसके बाद गुरु ने कहा, “माँ का काम कर। माँ तेरी चिंता अपने आप रखेगी। परिवार के लिए मोटे−झोटे की कमी कभी नहीं रहेगी।”

नरेंद्र के मिलने के पाँच वर्ष बाद ठाकुर ने शरीर छोड़ दिया। शरीर छोड़ना भी जैसे किसी दैवी योजना का हिस्सा था। एक दिन उन्होंने शिष्य से कहा, “सुनो, अब लोगों के साथ ज्यादा बात नहीं कर सकूँगा। इसलिए माँ से निवेदन किया है कि नरेंद्र, राजा (राखाल महाराज), तारक, बाबू (बाबूराम), योगीन, शशि आदि शिष्यों को शक्ति दे। अब आगे से यही लोग भक्तों को उपदेश दिया करें।” इस घोषणा के कुछ दिन बाद गले में पीड़ा उठने लगी। पीड़ा बढ़ी। भोजन करने में कठिनाई होने लगी। रोग बढ़ता गया। भक्तों ने उपचार के लिए कहा। रामकृष्ण कहने लगे, माँ की इच्छा है, वह चाहेगी तो रोग ठीक होगा, वरना कितना ही उपचार करो, कुछ होने वाला नहीं।

लीला संवरण

उपचार नहीं कराने के पीछे औषधियों के निर्माण में बरती जाने वाली क्रूरता मुख्य कारण थी। भक्तों ने दबाव डाला कि जिन औषधियों में पशु−हिंसा नहीं हुई हो, उनका उपयोग किया जाए। होम्योपैथी और आयुर्वेदिक चिकित्सा शुरू हुई। उनसे भी कुछ लाभ नहीं हुआ। हालत ज्यादा बिगड़ने लगी। एक दिन ठाकुर ने कहा कि जब रोग मिटता नहीं तो इसके लिए कष्ट सहने की क्या आवश्यकता? माँ को कष्ट क्यों दिया जाए? उस दिन ठाकुर ने भोजन भी नहीं किया। माँ शारदामणि की लाई हुई भोजन की थाली वापस कर दी। माँ ने भक्तों को ढाढ़स बँधाया और कहा, ठाकुर ने शरीर छोड़ने का निश्चय कर लिया है। उस दिन 16 अगस्त की तारीख थी। दिनभर सहज दिखाई दिए। शाम को भरपेट भोजन किया। आधी रात बीत जाने के बाद एक बजे के करीब रामकृष्ण परमहंस ने अपनी लीला का संवरण कर लिया। उनके शिष्यों ने ठाकुर का सौंपा हुआ दायित्व निभाने का संकल्प करते हुए गुरु के पार्थिव अवशेषों को श्रद्धा−भक्ति से प्रणाम किया, उन्हें समाधि दी गई।

पूजा की कोठरी में बैठे श्रीराम इन दृश्यों की यात्रा करते हुए चुपचाप बैठे रहे। स्मृतिफ्यों से वे बाहर आए और सामने प्रसन्नमुद्रा में खड़ी मार्गदर्शक सत्ता को निहारा। स्मृतियों से वापस लौटते हुए चेतना क्लाँत−सी हो रही थी। जैसे बहुत दूर श्रीराम की अंतर्यात्रा भी सूक्ष्म और दिव्य विस्तार में प्रवेश की यात्रा थी, लेकिन जब वे वर्तमान में लौटे तो थकान ने घेर लिया। मार्गदर्शक सत्ता ने दायाँ हाथ आगे बढ़ाया, उसका अँगूठा भ्रूमध्य में रखा और चारों उँगलियाँ सिर के उस भाग पर जिसे योगीजन सहस्रार या ब्रह्मरंध्र कहते हैं। इस स्पर्श ने श्रीराम की क्लाँति को दूर कर दिया। चेतना में स्फूर्ति लहराने लगी। एक नया जगत सामने प्रस्तुत हो गया। उस जगत में आलोक से भरा हुआ पूजा कक्ष, गुरुदेव और अपने सिवा वातावरण में दिव्य गंध की व्याप्ति अनुभव हो रही थी।


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