आर्षग्रंथ बताते हैं कि भूकंप क्यों व कहाँ आते हैं।

May 2003

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जड़ दिखायी देने वाले इस जगत् का रहस्य अद्भुत एवं आश्चर्यजनक है। विस्मयकारी है इसकी हर गतिविधियाँ। दुर्बोध है इसका रहस्य। परन्तु प्रकृति को माता मानकर इसकी गोद में पलने-बढ़ने वाले ऋषियों-द्रष्टाओं ने इसकी अथाह सीमाओं की कुछ थाह पायी थी। प्रकृति माँ के गर्भ से जन्मे व पले-बढ़े इन ऋषियों ने इसके कुछ अंश का बोध पाया था। उनका यही अन्तर्बोध ऋग्वेद की ऋचाओं, उपनिषद् के मंत्रों, दर्शन के सूत्रों एवं ज्ञान-विज्ञान के अनेक ग्रन्थों के अनगिनत पृष्ठो और पन्नों में झलकता-जगमगाता है। जीव और जगत् के तमाम रहस्यों को उन्होंने सूत्रों और संकेतों के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। इसी क्रम में वे भूकम्प आपदा और विपदा की दुर्बोध, जटिल व आकस्मिक घटना से भी सर्वांग रूप से परिचित थे। इसका भी उन्हें समुचित ज्ञान था।

‘सुदूर अतीत में कभी अचल और भीमकाय पर्वत अनन्त गगन में आनन्दपूर्वक उड़ते और गतिमान होते थे। और पुनः अपने गन्तव्य से वापस आकर स्थिर हो जाते थे। परन्तु कभी-कभी वे धरती में गिर पड़ते थे, जिससे उनके असीम भार से धरती काँप उठती थी। उसकी व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाती थी। पृथ्वी के विनम्र एवं आकुल अनुनय पर प्रजापति ने इन्द्र को आदेश दिया कि पर्वतों के पंख को काट दिया जाये। इस प्रकार पंख विहीन पर्वत उड़ने में अक्षम व असमर्थ स्थिर हो गये। पर फिर भी वे वायु, अग्नि और जल के साथ मिलकर धरती को कम्पित व हलचल किये रहते थे। ‘ऋग्वैदिक ऋचाओं में वर्णित इस आख्यान में स्थिर महादेशों के सिद्धान्त तथा भूकम्प की वैज्ञानिकता का अद्भुत संकेत मिलता है। इस ऋचा में निहित संकेत सूत्रों से पता चलता है कि हमारे प्राचीन ऋषि न केवल अन्तर यात्रा के अध्यात्म ज्ञान के ही प्रणेता थे बल्कि विज्ञान के भी सृजेता थे। उन्हें भूकम्प सम्बन्धी परिघटनाओं का गम्भीर ज्ञान था।

इस संदर्भ में बल्लाल सेन की सुविख्यात कृति ‘अद्भुत सागर’ में उल्लेख मिलता है कि इन्द्र, अग्नि, जल और वायु धरती को अपने प्रभाव से भरपूर प्रभावित करते हैं। और क्रमशः पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर में कम्पन पैदा करते हैं। पारासर ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है। उन्होंने ग्रहणों और अन्तरिक्ष हलचलों के साथ भूकम्प की उत्पत्ति का सिद्धान्त दिया है। इस प्रकार प्राचीन ग्रन्थों में काल एवं तत्कालीन नक्षत्रीय संरचना को आधार मानते हुए चार प्रकार के भूकम्प का उल्लेख मिलता है। आश्विनी, मृगशिरा, पुनर्वसु, हस्ता, चित्रा, स्वाती, उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र की उपस्थिति में रात्रि के अंतिम प्रहर या प्रातः के प्रहर में उत्तर दिशा में जब भूकम्प आता है तो उसे वायुमण्डल भूकम्प कहा जाता है। अद्भुत सागर नामक ग्रन्थ में इससे मिलता-जुलता वर्णन मिलता है। इस ग्रन्थ के अनुसार दक्षिण, पूर्व एवं पश्चिम दिशा से उत्पन्न भूकम्पों को क्रमशः अग्नि, इन्द्र एवं वरुण मण्डलों में विभाजित किया गया है।

प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में भूकम्प को इस मण्डलीकरण या विभाजन का बड़ा ही वैज्ञानिक ढंग से प्रतिपादन किया गया है। इनके सूक्ष्म अध्ययन-अन्वेषण से पता चलता है कि विभिन्न प्रकार के भूकम्प भिन्न-भिन्न क्षेत्र में आते हैं। वृहत् संहिता के अनुसार वायुमण्डल का क्षेत्र है- सौराष्ट्र, कुरु, मगध, दाशार्ण, मत्स्य। अद्भुत सागर में ये क्षेत्र हैं- यवन, दण्डक, सल्व, सौवर्धन, पुलिंन्द, विदेह, नल, दर्द, अंग, बंग, अवन्ती, मालवा, त्रिगर्त, सौवीर, यौधेय, क्षुद्रक, शिविका, मद्रक, शक, कम्बोज, बाहलीक, गाँधार,कलिंग, शबर, मयेद्ध और तंगण। वृहत् संहिता में अग्नि मण्डल क्षेत्राँकन किया गया है। ये क्षेत्र हैं- अश्मक, अनग, ब्राहलीक, तंगण, कलिंग, बंग, द्रविड़ और शबर। अद्भुत सागर में ये क्षेत्र हैं- पुलिंद, यवन, ओद्र, अवन्ती, इक्ष्वाकु, कुलूत, तुषार, शिविका, त्रिगर्त, विदेह, सौराष्ट्र, मध्य देश और दाशार्ण। इन्द्र मण्डल के क्षेत्र वृहत् संहिता में इस प्रकार हैं- काशी, युगान्धर, पौराव, किरात, कीरा, अभिसार, हल, मद्र, अर्बुद, सौराष्ट्र और मालवा। अद्भुत सागर के मतानुसार कश्मीर, द्राविड़, अंधक, चीन, प्राच्य, शक, पहलाव, दण्डक, कैलाश, मल्ल और बहल। वृहत संहिता के अनुसार वरुण मण्डल में गोनर्द, चेढ़ी, कुक्कुर, किरात और विदेह आते हैं। अद्भुत सागर में इन्हें कश्मीर, परत, वत्स, अब्रक, करुव और हिंसल के रूप में वर्णित किया गया है।

भूकम्प के इस वर्गीकरण के पश्चात् सभी प्राचीन भारतीय विद्वानों ने स्वीकार एवं समर्थन किया कि भूकम्प अतिथि के समान कोई भी कभी भी और किसी समय आ सकता है। अतः सम्मिश्रित प्रकार के भूकम्प सम्भव हैं। परासर ने ऐसे सम्मिश्रित भूकम्पों का उल्लेख किया है। ये भूकम्प हैं- 1. वायु-अग्नि मण्डल, 2. वायु-इन्द्र मण्डल, 3. वायु-वरुण मण्डल, 4. अग्नि-इन्द्र मण्डल, 5. अग्नि-वरुण मण्डल और 6. इन्द्र-वरुण मण्डल। इस पहले मण्डल में कुरु, साल्व, मत्स्य, निषाद, पुणद्, आँध्र, कलिंग, विंधत् आते हैं। दूसरे में आते हैं- प्राच्य, शक, चीन, पहलवा, यौधेय, यवन, मगध। तीसरे मण्डल के क्षेत्र हैं-अवन्तिका, पुलिंद, विदेह, सकाश्मीर, दर्द। चौथे मण्डल के क्षेत्र हैं- इक्ष्वाकु, पाटचर, आमीर, चीन, मरुकच्छ। पाँचवें में आते हैं- गोनार्द, अंगनाराजय, तटीय क्षेत्र। छठवें में काशी, अभिसार, अत्त्युत और कच्छद्वीप आते हैं।

सन् 1025 में चालुक्य नरेश जयसिंह ने चामुण्डराय कृत कन्नड़ पुस्तक ‘ लोकोपकारकम्’ नामक संदर्भ ग्रन्थ को प्राप्त किया था। इस दुर्लभ ग्रन्थ में लेखक ने आठ श्लाकों के माध्यम से चार प्रकार के भूकम्पों का विवरण-विवेचन किया है। इस विश्लेषण के अनुसार वायु मण्डल के भूकम्प के प्रभाव क्षेत्र में कुरु, मगध, द्रविड़ और कुन्तल क्षेत्र आते हैं। चामुण्डराय के अनुसार द्रविड़ भूमि को तिगुल देश (तमिल देश) कहते हैं। अग्नि मण्डल के भूकम्प अंग, बंग, कलिंग, केरल, बाहलीक और द्रविड़ क्षेत्रों के अंतर्गत आते हैं। इसी तरह इन्द्र मण्डल के भूकम्प मात्र सौराष्ट्र एवं अभिसार क्षेत्रों तक सीमित है। वरुण मण्डल के भूकम्प -विदेह, गोवर्धन, निषाद एवं बिहार में अवस्थित है।

प्राच्य विद्वानों ने भूकम्प के व्यापक विनाशकारी प्रभाव का भी उल्लेख किया है। यह प्रभाव अलग-अलग मण्डलों के भूकम्पों का अलग- अलग होता है। वायु मण्डल के भूकम्पों के परिणाम स्वरूप भवनों, विहारों, मन्दिरों, प्रासादों, तोरणों और किलों का विनाश होता है। इस भूकम्प के आगमन की सूचना सप्ताह भर के भीतर चक्रवाती आँधियों के घटित होने से मिल जाती थी। इसी प्रकार अग्नि मण्डल के भूकम्पों का प्रभाव गाँवों और नगरों में दिखाई देता है, जिसमें व्यापक रूप से फैल जाने वाली अग्नि और नदियों व अन्य जल स्रोतों के सूख जाने की बात की गई है। इन्द्र मण्डल के भूकम्प वर्षा और कृमि आवासों के विनाश का कारण बनते हैं। वरुण मण्डल के भूकम्प नदी और सागर तट पर मानव जीवन के भयावह विध्वंस का कारण बनते हैं।

प्राच्य विद्वानों ने भूकम्प के व्यापक विनाशकारी प्रभाव का भी उल्लेख किया है। यह प्रभाव अलग-अलग मण्डलों के भूकम्पों का अलग- अलग होता है। वायु मण्डल के भूकम्पों के परिणाम स्वरूप भवनों, विहारों, मन्दिरों, प्रासादों, तोरणों और किलों का विनाश होता है। इस भूकम्प के आगमन की सूचना सप्ताह भर के भीतर चक्रवाती आँधियों के घटित होने से मिल जाती थी। इसी प्रकार अग्नि मण्डल के भूकम्पों का प्रभाव गाँवों और नगरों में दिखाई देता है, जिसमें व्यापक रूप से फैल जाने वाली अग्नि और नदियों व अन्य जल स्रोतों के सूख जाने की बात की गई है। इन्द्र मण्डल के भूकम्प वर्षा और कृमि आवासों के विनाश का कारण बनते हैं। वरुण मण्डल के भूकम्प नदी और सागर तट पर मानव जीवन के भयावह विध्वंस का कारण बनते हैं।

आधुनिक भूकम्प विज्ञान एकाएक एवं अकस्मात् आने वाली इस त्रासदी से भिज्ञ नहीं हो पाता है। परन्तु हमारे पूर्वज मनीषियों एवं धर्म ग्रन्थों में इसका पूर्वाभास के स्पष्ट संकेत परिलक्षित होते हैं। उनके अनुसार भूकम्प भविष्य की कोख में छिपी किसी भीषण दुर्घटना का आभास देते हैं। और यह आभास उन्हें होता था। पुराने विवरणों में भूकम्पों को राज की मृत्यु, युद्ध एवं महामारी की विभीषिका के अपशकुन के रूप में चित्रित किया गया है। वाराह मिहिर ने वृहत संहिता के चौथे अध्याय में स्पष्ट किया है कि जब चन्द्रमा का बाहरी घेरा दक्षिण-उत्तर दिशा में फैले बैलगाड़ी के जुए के समान दीख पड़े तो भूकम्प आता है। वे पाँचवे अध्याय में वर्णन करते है कि यदि ग्रहण के अवसर पर तेज हवा चले, उल्कापात हो, धूल भरी आँधी आये, घना अंधकार छा जाये एवं आकाश में बिजली गिरे तो भूकम्प के आसार होते हैं। प्राचीन मान्यतानुसार 24 महीनों के अन्तराल पर लगे दो ग्रहणों के मध्य एक या अधिक भूकम्प की सम्भावना रहती है।

पाराशार के अनुसार 5000 वर्ष के अन्तराल पर उदित होने वाले चलकेतु नामक धूमकेतु धरती में कंपन पैदा करता है और मध्य देश के एक घनी आबादी वाले देश को विनष्ट करता है। इसी तरह अनियत अन्तराल पर प्रकट होने वाले धूमकेतु भी भूकम्प का कारण बनते हैं। काव्यात्मक ग्रन्थ महाभारत के उद्योग पर्व, द्रोण पर्व, शल्य पर्व और गदा पर्व में भी भूकम्पों के पूर्वाभास का संकेत मिलता है। इस संदर्भ में आधुनिक विज्ञान मूक है। भूकम्प के देश जापान में इसकी भविष्यवाणी करने के लिए ‘अर्थक्वेक ऐसेसमेण्ट कमेटी (ई. ए. सी.)’ के गठन के बावजूद कोई उत्साहवर्धक सफलता नहीं मिली। अन्यथा भूकम्प के लम्बे व दीर्घ इतिहास को छोड़ दें तो भी विगत दशकों में आये लातुर, उत्तरकाशी, ईरान, चमोली, जबलपुर और भुज व कच्छ के भूकम्पों से कुछ तो सावधानी बरती जा सकती थी। परन्तु प्राकृतिक आपदा के इस रहस्य को न आधुनिक विज्ञान ही जान पाया है और न ही आधुनिक मानवी मन। इसे जानने के लिए हमारे प्राचीन ऋषि-मनीषियों के सूत्रों व संकेतों को समुचित अनावरण करने पर ही कोई सहायता मिल सकती है।

‘पुत्रोऽहं पृथिव्या’ के वैदिक मंत्र काँ हृदयंगम एवं आत्मसात् करके ही प्रकृति के इस विप्लव एवं प्रलयकारी दुर्घटना से बचा जा सकता है। इसके लिए हमें पुत्रवत् प्रकृति माँ की गोदी में दुबक जाना होगा एवं इसकी हरियाली चादर तथा पावन पर्यावरण को पुनः दिव्य व पवित्र बनाने में सर्वस्व न्यौछावर करना होगा। इसी प्रयास पुरुषार्थ से ही मानव भूकम्प की आपदा से स्वयं को बचा सकता है, सुरक्षित एवं संरक्षित हो सकता है।


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