मगध का एक धनी व्यापारी भगवान बुद्ध के पास संन्यास की दीक्षा लेने गया। बुद्ध ने उसका कारण और वृत्ताँत सुना। कहा, पहले अपने को उदार और सज्जन बनाओ। फिर उस सद्व्यवहार से परिवार के दुर्गुणों का निराकरण करो। परिवार का जो तुम पर ऋण है, उसे चुकाओ, सबको स्वावलंबी बनाओ। जब इतना कर सको, तब धर्म की सेवा और जनकल्याण की दीक्षा लेने यहाँ आना।
सिकंदर को एक असाध्य बीमारी हुई। उसका मरण निश्चित मानकर कोई चिकित्सक बदनामी के भय से दवा देने का साहस नहीं कर रहा था।
इस असमंजस भरी परिस्थिति में सिकंदर के एक स्वामिभक्त नौकर ‘फिलिप’ ने दवा बनाई और उसे अच्छा हो जाने का आश्वासन दिया।
चुगलखोरों ने सिकंदर को पत्र लिखकर सूचना दी कि फारस के राजा ने फिलिप द्वारा आपको विष देकर मार डालने का षड्यंत्र किया है और बदले में विशाल संपदा देने का लालच भी।
महर्षि अंगिरा ने गोपमाल को तिलक किया और कहा, “तात! मैं जानता हूँ कि तुम्हारे अंतःकरण में मुक्ति की आकाँक्षा अत्यंत प्रबल है, तुम जाओ और वर्णाश्रम धर्म की मर्यादानुसार गृहस्थ धर्म का अनुशीलन करो।”
“आपकी आज्ञा शिरोधार्य है गुरुदेव, पर यह संसार तो बंधन है, वहाँ जाकर मुक्ति जैसे जीवनलक्ष्य को भूल गया तो?” “भूलोगे नहीं तात, यदि तुमने कर्म के फल में आसक्ति नहीं रखी तो गृहस्थी जैसे कठोर उत्तरदायित्व का पालन करते हुए भी तुम उसी लक्ष्य की ओर अपने आप को अग्रसर पाओगे। विवाह करो एवं सुख से जीवन बिताओ। गृहस्थ में रहकर ही व्यावहारिक जीवन की साधना करो।”
गृहस्थी को कार्य बड़े बेढंगे होते हैं। एक बार धन के अभाव में गोपमाल को गायें बेचनी पड़ीं। गोपमाल को पता चला कि उन गायों का वध हो गया। वह स्वयं को इस पाप का कारण मानकर ग्लानि से भर गया, उसका मन छटपटाने लगा एवं गृहस्थी का परित्याग करने का निश्चय कर लिया। पत्नी ने भी उनके मन की बात जान ली। उसने निश्चय कर लिया कि मैं भी पति के साथ ही गृह त्याग दूँगी।
रात्रि के निविड़ अंधकार में गोपमाल चुपचाप उठा। पत्नी भी साथ हो ली। ज्यों ही दोनों आगे बढ़े, एक आकृति सामने आई। गोपमाल ने पहचाना कि यह तो महर्षि अंगिरा खड़े हैं। उन्होंने दोनों को आशीर्वाद देते हुए कहा, “तुम दोनों आत्मकल्याण के इच्छुक हो, परंतु जो सामाजिक जीवन की परिस्थितियों से ही नहीं लड़ सका, तप-तितिक्षाओं को कैसे सहन करेगा। मनुष्य कर्म करे, सफलता या विफलता, सुख-दुःख, मान-अपमान में स्थिर रहकर फल से प्रभावित न हो। अपने आप को भगवान का प्रतिनिधि मानकर लोक-सेवा में स्वयं को नियोजित रखे। फलश्रुतियाँ तो स्वयं ही मिल जाती हैं।”
गोपमाल ने तत्त्वदर्शन को समझा और लौट पड़ा। अपने गृहस्थरूपी तपोवन में पत्नी के साथ, पुनः समर में जूझने हेतु। उसे अब आध्यात्मिकता की सही परिभाषा जो समझ में आ गई थी।